अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
तप॑नो अस्मि पिशा॒चानां॑ व्या॒घ्रो गोम॑तामिव। श्वानः॑ सिं॒हमि॑व दृ॒ष्ट्वा ते न वि॑न्दन्ते॒ न्यञ्च॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑न: । अ॒स्मि॒ । पि॒शा॒चाना॑म् । व्या॒घ्र: । गोम॑ताम्ऽइव । श्वान॑: । सिं॒हम्ऽइ॑व । दृ॒ष्ट्वा । ते । न । वि॒न्द॒न्ते॒ । नि॒ऽअञ्च॑नम्॥३६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तपनो अस्मि पिशाचानां व्याघ्रो गोमतामिव। श्वानः सिंहमिव दृष्ट्वा ते न विन्दन्ते न्यञ्चनम् ॥
स्वर रहित पद पाठतपन: । अस्मि । पिशाचानाम् । व्याघ्र: । गोमताम्ऽइव । श्वान: । सिंहम्ऽइव । दृष्ट्वा । ते । न । विन्दन्ते । निऽअञ्चनम्॥३६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(पिशाचानाम्) पिशाचों का (तपन:) सन्तापक (अस्मि) मैं सेनाध्यक्ष हूँ, (इव) जैसेकि (गोमताम्) गोस्वामियों का सन्तापक (व्याघ्रः) व्याघ्र होता है, (इव) जैसे (सिंहं दृष्ट्वा) सिंह को देखकर (श्वान:) कुत्ते [छिपने का समय नहीं पाते वैसे] (ते) वे पिशाच [मुझे देखकर] (न्यञ्चनम्) छिपने के स्थान को (न विन्दन्ते) नहीं पाते।
टिप्पणी -
[पिशाचा:= पिशाच अमानव-जाति के नहीं, अपितु वे मांस-भक्षक मनुष्य ही हैं। व्याघ्र गौओं को मारकर खा जाता है, अत: गोस्वामियों का वह सन्तापक है। कुत्ते सिंह को देखकर छिपने का अवसर नहीं पा सकते, सिंह उनपर झपटकर उन्हें पकड़ लेता है।]