Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 36

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    सूक्त - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त

    यो नो॑ दि॒प्सददि॑प्सतो॒ दिप्स॑तो॒ यश्च॒ दिप्स॑ति। वै॑श्वान॒रस्य॒ दंष्ट्र॑योर॒ग्नेरपि॑ दधामि॒ तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । दिप्सा॑त् । अदि॑प्सत: । दिप्स॑त: । य: । च॒ । दिप्स॑ति ।वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । दंष्ट्र॑यो: । अ॒ग्ने । अपि॑ । द॒धा॒मि॒ । तम् ॥३६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो दिप्सददिप्सतो दिप्सतो यश्च दिप्सति। वैश्वानरस्य दंष्ट्रयोरग्नेरपि दधामि तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । दिप्सात् । अदिप्सत: । दिप्सत: । य: । च । दिप्सति ।वैश्वानरस्य । दंष्ट्रयो: । अग्ने । अपि । दधामि । तम् ॥३६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (यः) जो शत्रु, (अदिप्सतः नः) दम्भ न करना चाहते हुए या करते हुए हमारे साथ (दिप्सत्) दम्भ करना चाहे, (य: च) और जो (दिप्सतः) प्रतीकार में दम्भ करना चाहते हुए या करते हुए हमारे साथ (दिप्सति) फिर भी दम्भ करना चाहता है या करे, (तम्) उन दोनों को (वैश्वानरस्य) सब नर-नारियों का हित करनेवाले (अग्नेः) राष्ट्राग्रणी प्रधानमन्त्री की (दंष्ट्रयोः) दो दंष्ट्राओं में (अपि दधामि) मैं पिहित करता है, बन्द करता हूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top