अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 7
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - दिशः
छन्दः - त्रिपदा महाबृहती
सूक्तम् - सन्नति सूक्त
दि॒क्षु च॒न्द्राय॒ सम॑नम॒न्त्स आ॑र्ध्नोत्। यथा॑ दि॒क्षु च॒न्द्राय॑ स॒मन॑मन्ने॒वा मह्यं॑ सं॒नमः॒ सं न॑मन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒क्षु । च॒न्द्राय॑ । सम् । अ॒न॒म॒न् । स: । आ॒र्ध्नो॒त् । यथा॑ । दि॒क्षु । च॒न्द्राय॑ । स॒म्ऽअन॑मन् । ए॒व । मह्य॑म् । स॒म्ऽनम॑: । सम् । न॒म॒न्तु॒ ॥३९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
दिक्षु चन्द्राय समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथा दिक्षु चन्द्राय समनमन्नेवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठदिक्षु । चन्द्राय । सम् । अनमन् । स: । आर्ध्नोत् । यथा । दिक्षु । चन्द्राय । सम्ऽअनमन् । एव । मह्यम् । सम्ऽनम: । सम् । नमन्तु ॥३९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(दिक्षु) दिशाओं में (चन्द्राय) चन्द्र के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए, झुके; (सः) वह चन्द्र (आर्ध्नोत्) ऋद्धि अर्थात् समृद्धि को प्राप्त हुआ। (यथा) जिस प्रकार (दिक्षु) दिशाओं में (चन्द्राय) चन्द्र के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए (एव= एवम्) इसी प्रकार (मह्यम्) मेरे लिए (संनमः) अभिलषित पदार्थों के प्रह्वीभवन अर्थात् झुकाव (सं नमन्तु) संनत हों, झुकें, अर्थात् मुझे प्राप्त हों।
टिप्पणी -
[दिशाओं को राष्ट्रभूमि और चन्द्र को राष्ट्राधिपति कहा है, राजा कहा है। जैसे राजा के लिए प्रजाएँ झुकती हैं, इसी प्रकार चन्द्र के लिए प्रह्वीभूत वस्तुओं को चन्द्र की प्रजाएँ कहा है। चन्द्र दिशाओं का अधिपति है। अमावास्या के पश्चात् चन्द्र का उदय प्रथम पश्चिम दिशा में होता है। इस दिशा की ओर मुख करने से दाहिनी ओर उत्तर, पीठ की ओर पूर्व, और बाई ओर दक्षिण दिशा होती है। इस प्रकार रात्रि-काल में दिशाओं के परिज्ञान में चन्द्र कारण होता है, अत: चन्द्र को दिशाओं का अधिपति कहा है। रात्रि के काल में चन्द्र का सहचारी होता है द्युलोक, अर्थात् द्युलोकस्थ नक्षत्र और तारामण्डल। ये सब प्रजाएँ हैं चन्द्र की, ये मानो चन्द्र के प्रति प्रह्वीभूत हो रही होती हैं। यथा "चन्द्रमा नक्षत्राणामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।१०)। नक्षत्रपद उपलक्षक है द्युलोक के अन्य तारामण्डलों का भी।]