अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 10
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सन्नति सूक्त
हृ॒दा पू॒तं मन॑सा जातवेदो॒ विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। स॒प्तास्या॑नि॒ तव॑ जातवेद॒स्तेभ्यो॑ जुहोमि॒ स जु॑षस्व ह॒व्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठहृ॒दा । पू॒तम् । मन॑सा । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वा॑नि । दे॒व॒ । व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । स॒प्त । आ॒स्या᳡नि । तव॑ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तेभ्य॑: । जु॒हो॒मि॒ । स: । जु॒ष॒स्व॒ । ह॒व्यम् ॥३९.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
हृदा पूतं मनसा जातवेदो विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। सप्तास्यानि तव जातवेदस्तेभ्यो जुहोमि स जुषस्व हव्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठहृदा । पूतम् । मनसा । जातऽवेद: । विश्वानि । देव । वयुनानि । विद्वान् । सप्त । आस्यानि । तव । जातऽवेद: । तेभ्य: । जुहोमि । स: । जुषस्व । हव्यम् ॥३९.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(जातवेदः) हे सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान ! तथा उनके ज्ञाता परमेश्वर (देव) देव! तू (विश्वानि) सब (वयुनानि) प्रज्ञानों को (विद्वान्) जानता है, (हृदा, मनसा) हमारी हार्दिक भावना द्वारा तथा मानसिक विचार द्वारा (पूतम्) पवित्र किये (हव्यम्) आहुति-योग्य पदार्थ को (सः) वह तू (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवित कर। (जातवेदः) हे सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान! तथा उनके ज्ञाता! (तव) तेरे (सप्त आस्यानि) सात मुख हैं, (तेभ्यः) उनके लिए (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ।
टिप्पणी -
[आहुतियाँ अग्नि में दी जाती हैं। अग्नि के मुख सात हैं। यथा— काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुल्लिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ मुण्डक उप० १।२।४॥ अग्नि की ये सात जिह्वा हैं, एक एक जिह्वा एक एक मुख में, अतः अग्नि के सात आस्य हैं, सात मुख हैं। उन सात आस्यों में दी गई आहुतियाँ परमेश्वर के सात आस्यों में दी गई जाननी चाहिएँ। परमेश्वर ही सप्तजिह्व या सप्तास्य अग्नि में विद्यमान हुआ आहुतियों को ग्रहण करता है। मन्त्र ९ में कहा है कि "अग्नावग्निः चरति प्रविष्टः" कि यज्ञिय अग्नि में परमेश्वराग्नि ही प्रविष्ट है, अत: वस्तुत: परमेश्वराग्नि में ही आहुतियाँ जाननी चाहिएँ। वयुनानि= प्रज्ञानानि (निरुक्त ८।३।२०)। मन्त्र ९ और १० का सम्बन्ध सूक्त ३९ के अवशिष्ट मन्त्रों के साथ क्या है-यह विचारणीय है। अथवा सूक्त के मन्त्र १ और २ में अग्नि का वर्णन होने से, उस अग्नि में विचरनेवाले परमेश्वराग्नि को सूचित कर समग्र सूक्त में आध्यात्मिकता निर्दिष्ट की है। इसी प्रकार वायु में वायुनाम से तथा आदित्य में आदित्य नाम से और चन्द्र में चन्द्र नाम से परमेश्वर का प्रवेश सूचित किया है। इसलिए कहा है कि "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः" (यजु ३२।१)।]