अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 8
सूक्त - भृगुः
देवता - त्रैककुदाञ्जनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
त्रयो॑ दा॒सा आञ्ज॑नस्य त॒क्मा ब॒लास॒ आदहिः॑। वर्षि॑ष्ठः॒ पर्व॑तानां त्रिक॒कुन्नाम॑ ते पि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठत्रय॑: । दा॒सा: । आ॒ऽअञ्ज॑नस्य । त॒क्मा । ब॒लास॑: । आत् । अहि॑: । वर्षि॑ष्ठ: । पर्व॑तानाम् । त्रि॒ऽक॒कुत् । नाम॑ । ते॒ । पि॒ता ॥९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयो दासा आञ्जनस्य तक्मा बलास आदहिः। वर्षिष्ठः पर्वतानां त्रिककुन्नाम ते पिता ॥
स्वर रहित पद पाठत्रय: । दासा: । आऽअञ्जनस्य । तक्मा । बलास: । आत् । अहि: । वर्षिष्ठ: । पर्वतानाम् । त्रिऽककुत् । नाम । ते । पिता ॥९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(आञ्जनस्य) सर्वत्र अभिव्यक्ति करनेवाले ब्रह्म-पुरुष के (त्रयः) तीन (दासाः) दासवत् वशवर्ती हैं [सायण], या उपक्षयनीय हैं, (तक्मा) कृच्छ्र जीवन अर्थात् कष्टमय जीवन, (बलास:) वल की क्षेपण अर्थात् बल का अभाव, (आत्) तदनन्तर (अहिः१) सर्पवत् परछिद्र-प्रवेश पुरुष। (पर्वतानाम्) पर्वतों में (वर्षिष्ठः) सबसे वृद्ध अर्थात पुरातन या सुखवर्षी (त्रिककुद् नाम) तीन ककुदोंवाला पर्वत (ते) हे ब्रह्म-पुरुष! तेरा (पिता) पिता है।
टिप्पणी -
[दासाः= दसु उपक्षये (दिवादिः)। ब्रह्म-पुरुष के 'आत्मस्वरूप' [मन्त्र ७] की प्राप्ति हो जाने पर कृच्छ्र जीवन, बलक्षय, तथा सर्ववत् परछिद्र में प्रवेश ये तीनों उपक्षीण हो जाते हैं। 'पर्वतानाम्' तथा 'त्रिककुद्',— ये दो पद विचारणीय है। पर्वत पद अनेकार्थक है। निघण्टु १।१० में पर्वत, मेघवाची है, परन्तु इस आञ्जन-प्रकरण में पर्वत का अर्थ है पर्ववान् अर्थात् जोड़वाला। यथा, -"पर्ववान् पर्वतः। तत्प्रकृतीतरत् सन्धिसामान्यात्" (निरुक्त १।६।२०)। मन्त्र में 'पर्वत' पद सन्धिवाचक है, अर्थात् वर्णों की सन्धि द्वारा निर्मित 'पद', शब्दात्मक-पद। वह है ओम्, जोकि "अ, उ, म्" इन तीन वर्णों की सन्धि द्वारा निष्पन्न है। इसलिए ओम् की व्याख्या में "अ, उ, म" इन तीन वर्णों की व्याख्या माण्डूक्य उपनिषद् में हुई है। माण्डूक्य उपनिषद् में, प्रथमः पादः द्वितीयः पादः तथा ततीयः पादः द्वारा। इन तीन पदों को "अकार:, उकार:, मकार:" कहा है (माण्डूक्य उप० खण्ड ८)। त्रिककुत्=इसके परिज्ञान के लिए निम्नलिखित मन्त्र विचारणीय है, यथा- सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्तसिन्धव:। अनु क्षरन्ति काकुदं सुर्म्यं सुषिरामिव। -- ऋ० ८।६९।१२; तथा निरुक्त ५।४।२७ है वरुण ! (सुदेवः) उत्तमदेव (असि) तु है, (यस्य ते) जिस तेरे (सप्तसिन्धवः) सात स्यन्दन करनेवाले मन्त्र (काकुदम्) काकुद के अनुकूल क्षरण करते हैं, (इव) जैसेकि (सूर्म्यम्) उत्तम ऊर्मियोंवाला स्रोत (सुषिराम्) सुछिद्रा भूमि में क्षरण करता है। मन्त्र में 'काकुदम्' की व्याख्या में निरुक्त में कहा है कि "काकुदं ताल्चित्याचक्षते, जिह्वा कोकुवा सास्मिन् धीयते" (५।४।२७ पदसंख्या ७६)। अर्थात् काकुद है 'तालु', मुखस्थ प्रदेश, और कोकुवा है जिह्वा जोकि इस तालु में धारित होती है। काकुदम्= "कोकुवा+धा"। इस निष्पत्ति में वर्णविकार, वर्णनाश आदि नाना परिवर्तन करने होते हैं, जोकि क्लिष्ट कल्पना है। काकुदम् में ककुद् या कुकुत् पद स्पष्ट प्रतीत होता है। बैल की गर्दन के समीप एक उच्च प्रदेश उभरा हुआ होता है जिसकी ककुद् कहते हैं। 'तालु' भी उच्च प्रदेश है। इस अर्थ में भी ककुद् का अभिप्राय 'तालु' सम्भव है। सूक्त के मंत्र ८ में 'त्रिककुत्' पद पठित है, अत: इसका अर्थ 'तीन ककुदों वाला प्रदेश' अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। तालु में तीन उच्च प्रदेश अभिप्रेत हैं, कण्ठ और दो ओष्ठ, एक नीचे का ओष्ठ और दुसरा ऊपर का ओष्ठ। ब्रह्म-पुरुष का जप "ओम्" द्वारा या ओम् सम्बन्धी तीन अवयवों, "अ, उ, म्" द्वारा होता है। ये ही "त्रिककुत्" हैं। ते पिता= ये "त्रिककुत्" हे ब्रह्म-पुरुष ! तेरे पिता हैं। इन तीनों के समूहरूप ओम् द्वारा ब्रह्म-पुरुष की अभिव्यक्ति होती है, अतः इसे पिता कहा है। अथर्व (४।३९।९) में अग्नि में विचरनेवाले अग्नि नामक परमेश्वर को 'ऋषीणां पुत्रः' कहा है, और इस द्वारा ऋषियों को पिता कहा है, क्योंकि ऋषियों में आर्ष दृष्टि के उत्पन्न होने पर परमेश्वर का साक्षात्कार उन्हें होता है। इस प्रकार वेद की वस्तुवर्णन-शैली अद्भुत है।] [१. अथवा, सर्पवत् कुटिल गति, अर्थात् चाल, व्यवहार।]