अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमृता सूक्त
आ यो धर्मा॑णि प्रथ॒मः स॒साद॒ ततो॒ वपूं॑षि कृणुषे पु॒रूणि॑। धा॒स्युर्योनिं॑ प्रथ॒म आ वि॑वे॒शा यो वाच॒मनु॑दितां चि॒केत॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । य: । धर्मा॑णि । प्र॒थ॒म: । स॒साद॑ । तत॑: । वपूं॑षि । कृ॒णु॒षे॒ । पु॒रूणि॑ । धा॒स्यु: ।योनि॑म् । प्र॒थ॒म: । आ । वि॒वे॒श॒। आ । य: । वाच॑म् । अनु॑दिताम् । चि॒केत॑॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि। धास्युर्योनिं प्रथम आ विवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत ॥
स्वर रहित पद पाठआ । य: । धर्माणि । प्रथम: । ससाद । तत: । वपूंषि । कृणुषे । पुरूणि । धास्यु: ।योनिम् । प्रथम: । आ । विवेश। आ । य: । वाचम् । अनुदिताम् । चिकेत॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(प्रथमः) प्राथमिक (यः) जो परमेश्वर (धर्माणि ) धारक सूर्यादि में (आ ससाद) सर्वश्र, अधिष्ठातृरूप में स्थित हुआ है, ( ततः) तत्पश्चात् हे परमेश्वर ! तू (पुरूणि) बहुत (वपूंषि) प्राणिशरीरों को ( कृणुषे ) पेदा करता है। (धास्युः) सबका धारण करनेवाला (प्रथमः) प्राथमिक परमेश्वर (योनिम्) प्रकृतिरूपी योनि में (आविवेश) प्रविष्ट है, (यः) जो (अनुदिताम्, वाचम्) अनुच्चारित वाणी को (चिकेत) सम्यक्तया जानता है।
टिप्पणी -
[अनुदिताम्, वाचम्=अमुक व्यक्ति क्या कहेगा, इसे न कहे भी जो जानता है, अर्थात् उसके मन में क्या विचार है, उसे न कहे तो भी वह जानता है।]