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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदात्यष्टिः सूक्तम् - अमृता सूक्त

    अ॒र्धम॒र्धेन॒ पय॑सा पृणक्ष्य॒र्धेन॑ शुष्म वर्धसे अमुर। अविं॑ वृधाम श॒ग्मियं॒ सखा॑यं॒ वरु॑णं पु॒त्रमदि॑त्या इषि॒रम्। क॑विश॒स्तान्य॑स्मै॒ वपूं॑ष्यवोचाम॒ रोद॑सी सत्य॒वाचा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्धम् । अ॒र्धेन॑ । पय॑सा । पृ॒ण॒क्षि॒ । अ॒र्धेन॑ । शु॒ष्म॒ । व॒र्ध॒से॒ । अ॒मु॒र॒ । अवि॑म् । वृ॒धा॒म॒ । श॒ग्मिय॑म् ।सखा॑यम् । वरु॑णम् । पु॒त्रम् । अदि॑त्या: । इ॒षि॒रन् । क॒वि॒ऽश॒स्तानि॑ । अ॒स्मै॒ । वपूं॑षि । अ॒वो॒चा॒म॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । स॒त्य॒ऽवाचा॑ ॥१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्धमर्धेन पयसा पृणक्ष्यर्धेन शुष्म वर्धसे अमुर। अविं वृधाम शग्मियं सखायं वरुणं पुत्रमदित्या इषिरम्। कविशस्तान्यस्मै वपूंष्यवोचाम रोदसी सत्यवाचा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्धम् । अर्धेन । पयसा । पृणक्षि । अर्धेन । शुष्म । वर्धसे । अमुर । अविम् । वृधाम । शग्मियम् ।सखायम् । वरुणम् । पुत्रम् । अदित्या: । इषिरन् । कविऽशस्तानि । अस्मै । वपूंषि । अवोचाम । रोदसी इति । सत्यऽवाचा ॥१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 9

    भाषार्थ -
    (अर्धम्) ऋद्ध अर्थात् प्रवृद्ध ब्रह्माण्ड को हे परमेश्वर ! (अर्धेन) निज प्रवृद्ध स्वरूप द्वारा, (पयसा) तथा दुग्ध द्वारा (पृणक्षि) तू प्राणियों के साथ सम्पृक्त है, सम्पर्क करता है। ( शुष्म ) हे बलरूप !, (अमुर) हे अमर ! (अर्धेन) प्रवृद्ध ब्रह्माण्ड द्वारा (वर्धसे) तू कीर्ति में बढ़ता है । ( अविम् ) रक्षक, (शग्मियम्१) शक्तिमय, (सखायम् ) सखारूप, (अदित्याः) अखण्डित प्रकृति के (पुत्रम्) पुत्र को, (इषिरम् ) और उस प्रकृति में गति या प्रेरणा के प्रदाता (वरुणम् ) श्रेष्ठ या वरणीय परमेश्वर को ( वृधाम) हम स्तुतियों द्वारा बढ़ाएँ। (अस्मै) इस परमेश्वर के प्रति ( कविशस्तानि ) परमेश्वर - कवि द्वारा प्रोक्त (वपूंषि) इसके रूपों का (अवोचाम) हमने कथन किया है, (रोदसी) पृथिवी और द्युलोक भी ( सत्यवाचा= सत्यवाचौ ) सत्यस्वरूप ब्रह्म का कथन कर रहे हैं।

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