अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 108/ मन्त्र 1
त्वं नो॑ मेधे प्रथ॒मा गोभि॒रश्वे॑भि॒रा ग॑हि। त्वं सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒स्त्वं नो॑ असि य॒ज्ञिया॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । न॒: । मे॒धे॒ । प्र॒थ॒मा । गोभि॑: । अश्वे॑भि: । आ । ग॒हि॒ । त्वम् । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभि॑: । त्वम् । न॒: । अ॒सि॒ । य॒ज्ञिया॑ ॥१०८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो मेधे प्रथमा गोभिरश्वेभिरा गहि। त्वं सूर्यस्य रश्मिभिस्त्वं नो असि यज्ञिया ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । न: । मेधे । प्रथमा । गोभि: । अश्वेभि: । आ । गहि । त्वम् । सूर्यस्य । रश्मिऽभि: । त्वम् । न: । असि । यज्ञिया ॥१०८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 108; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(मेधे) हे मेधा शक्ति ! (त्वम्) तू (नः) हमारे लिये (प्रथमा) प्रथम उपादेया है, तू (गोभिः अश्व:) गौओं और अश्वों के साथ (आ गहि) आ। (त्वम्) तू (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों के साथ आ, अर्थात् प्रातः काल में आ (त्वम्) तू (नः) हमारे लिये (यज्ञिया) सत्कार योग्य और संगतियोग्य है।
टिप्पणी -
[मेधा है धारणाशक्ति। जो गुरुमुख से सुना और स्वयं पढ़ा उसे चित्त में स्थिर रखना। प्रातः काल स्वाध्याय का श्रेष्ठ समय है, क्योंकि यह सात्त्विक काल है। गृहस्थ जीवन के लिये गौओं और अश्वों का भी उपोर्जन करना आवश्यक है।]