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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 114/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त
मेद॑स्वता॒ यज॑मानाः स्रु॒चाज्या॑नि॒ जुह्व॑तः। अ॑का॒मा वि॑श्वे वो देवाः॒ शिक्ष॑न्तो॒ नोप॑ शेकिम ॥
स्वर सहित पद पाठमेद॑स्वता । यज॑माना: । स्रु॒चा । आज्या॑नि । जुह्व॑त: । अ॒का॒मा: । वि॒श्वे॒ । व॒: । दे॒वा॒: । शिक्ष॑न्त: । न । उप॑ । शे॒कि॒म॒ ॥११४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मेदस्वता यजमानाः स्रुचाज्यानि जुह्वतः। अकामा विश्वे वो देवाः शिक्षन्तो नोप शेकिम ॥
स्वर रहित पद पाठमेदस्वता । यजमाना: । स्रुचा । आज्यानि । जुह्वत: । अकामा: । विश्वे । व: । देवा: । शिक्षन्त: । न । उप । शेकिम ॥११४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 114; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यजमाना) हम यज्ञ करने वाले, (मेदस्वता) आज्य द्वारा स्निग्ध (स्रुचा) जुहू द्वारा (आज्यानि) आज्यों अर्थात् घृतों की जुह्वतः) आहुतियां देते हुए, जो (अकामाः) निष्काम हो कर, (विश्वे देवा:१) हे सब देवों ! (वः) तुम्हारे उपदेशानुसार (शिक्षन्तः) यज्ञानुष्ठान करना चाहते हुए भी (न उपशेकिम) हम निष्काम यज्ञानुष्ठान करने में शक्त नहीं हुए [उस पाप से, हमें छुड़ाओ]।
टिप्पणी -
[मेदस्वता२ स्रुचा= मिदि स्नेहने (चुरादिः)। आज्य द्वारा बार-बार यज्ञों के करने से जहुएं स्निग्ध हो गई हैं। माता, पिता, आचार्य तथा महात्मा उपदेश देते हैं कि यज्ञानुष्ठान निष्काम भावना से किया करो, परन्तु फिर भी यज्ञानुष्ठान हम सकाम ही कर ही करते हैं। इन माता आदि के सदुपदेशों का भग करना पाप है। इस पाप से हम छुटकारा चाहते हैं।] [१. विश्वेदेवाः= मातृदेव, पितृदेव, आचार्य देव, अतिथिदेव, आदित्यदेव आदि। २. मेदस्वता स्रुचा= मेदस्वत्या स्रुचा। अथवा "मेदस्वता स्निग्धेन तिलादि वस्तुना यागं निष्पादयन्तः, स्रुचा च आज्यानि च जुह्वतः"।]