अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 138/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - नितत्नीवनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - क्लीबत्व सूक्त
क्ली॒बं कृ॑ध्योप॒शिन॒मथो॑ कुरी॒रिणं॑ कृधि। अथा॒स्येन्द्रो॒ ग्राव॑भ्यामु॒भे भि॑नत्त्वा॒ण्ड्यौ ॥
स्वर सहित पद पाठक्ली॒बम् । कृ॒धि॒ । ओ॒प॒शिन॑म् । अथो॒ इति॑ । कु॒री॒रिण॑म् । कृ॒धि॒ । अथ॑ । अ॒स्य॒ । इन्द्र॑: । ग्राव॑ऽभ्याम् । उ॒भे इति॑ । भि॒न॒त्तु॒ । आ॒ण्ड्यौ᳡ ॥१३८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
क्लीबं कृध्योपशिनमथो कुरीरिणं कृधि। अथास्येन्द्रो ग्रावभ्यामुभे भिनत्त्वाण्ड्यौ ॥
स्वर रहित पद पाठक्लीबम् । कृधि । ओपशिनम् । अथो इति । कुरीरिणम् । कृधि । अथ । अस्य । इन्द्र: । ग्रावऽभ्याम् । उभे इति । भिनत्तु । आण्ड्यौ ॥१३८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 138; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
व्यभिचारी को (क्लीबम्) नपुंसक (कृधि) कर दे, (अथो) और (ओपशिनम्) ओपश वाला, (कुरोरिणम्) कुरीरयुक्त (कृधि) कर दे, (अथ) तदनन्तर (इद्रः) सम्राट् (ग्रावभ्याम्) दो ग्रावाओं द्वारा (अस्य) इसके (उने अण्ड्यौ) दोनों अण्डों के भीतरी भागों को (भिनत्नु) तोड़ दे।
टिप्पणी -
[ओपश और कुरीर स्त्रियों के आभूषण हैं। व्यभिचारी के दोनों अण्डों को तोड़कर उसे नपुंसक अर्थात् वीर्यहीन करके, स्त्रियों के दो आभूषण पहिना देने का विधान हुआ है। इन्द्रः= सम्राट्, "इन्द्रश्य सम्राट" (यजु० ८।३७)। अण्डभेदन राजाज्ञा के विना नहीं होना चाहिये,–यह इन्द्र पद द्वारा सूचित होता है। मन्त्र में आण्ड्यों के भेदन का विधान है, आण्ड्यौ का अभिप्राय है दो अण्डों में स्थित नाड़ी समूह। ग्रावभ्याम् = दो पत्थरों से।]