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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
सूक्त - शन्ताति
देवता - रुद्रः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्परक्षण सूक्त
सं ते॑ हन्मि द॒ता द॒तः समु॑ ते॒ हन्वा॒ हनू॑। सं ते॑ जि॒ह्वया॑ जि॒ह्वां सम्वा॒स्नाह॑ आ॒स्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ते॒ । ह॒न्मि॒ । द॒ता । द॒त: । सम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । हन्वा॑ । हनू॒ इति॑ । सम् । ते॒ । जि॒ह्वया॑ । जि॒ह्वाम् । सम् । ऊं॒ इति॑ । आ॒स्ना । अ॒हे॒ । आ॒स्य᳡म् ॥५६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सं ते हन्मि दता दतः समु ते हन्वा हनू। सं ते जिह्वया जिह्वां सम्वास्नाह आस्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ते । हन्मि । दता । दत: । सम् । ऊं इति । ते । हन्वा । हनू इति । सम् । ते । जिह्वया । जिह्वाम् । सम् । ऊं इति । आस्ना । अहे । आस्यम् ॥५६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 56; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ते) तेरे (दता) ऊपर के दान्तों के साथ (दत:) नीचे के दान्तों को (सं हन्मि) मैं मिला देता हूं, संहित कर देता हूं (ते) तेरे (हन्वा) ऊपर के जवाड़े के साथ (हनुः) नीचे के जबाड़े को (सम् उ) संहित कर देता हूं, मिला देता हूं, (ते) तेरी (जिह्वया) जिह्वा के साथ (जिह्वाम्) दूसरी जिह्वा को (सम्) संहित कर देता हूं, मिला देता हूँ, (अहे) हे सांप (आस्ना) तेरे मुख के साथ (आस्यम) मुख को (सम् उ) संहित कर देता हूं, मिला१ देता हूं।
टिप्पणी -
[जिह्वया जिह्वाम् सांप की दो जिह्वाए। द्विजिह्व:= Snake (आप्टे)। "आस्येन आस्थम्" का अभिप्राय अस्पष्ट है। मन्त्रोक्ति सम्भवत: 'देवजन' की है, जो कि सर्पविष चिकित्सक है। आस्य के उत्तर भाग को नीचे के भाग के साथ संश्लिष्ट करता हूँ (सायण)]। [१. वह सांप के सिर को दृढ़ता से पकड़ लेता है, जिस से सांप न मुख खोल सके, न काट सके।]