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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
सूक्त - कबन्ध
देवता - सान्तपनाग्निः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
यो अ॑स्य स॒मिधं॒ वेद॑ क्ष॒त्रिये॑ण स॒माहि॑ताम्। नाभि॑ह्वा॒रे प॒दं नि द॑धाति॒ स मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽइध॑म् । वेद॑ । क्ष॒त्रिये॑ण । स॒म्ऽआहि॑ताम् । न । अ॒भि॒ऽह्वा॒रे । प॒दम् । नि । द॒धा॒ति॒ । स: । मृ॒त्यवे॑ ॥७६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्। नाभिह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । सम्ऽइधम् । वेद । क्षत्रियेण । सम्ऽआहिताम् । न । अभिऽह्वारे । पदम् । नि । दधाति । स: । मृत्यवे ॥७६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यः) जो प्रजाजन (अस्य) इस धर्मयुद्ध की अग्नि को (समिधम्) समिधा को (वेद) जानता है, जो कि (क्षत्रियेण) क्षत्रिय द्वारा (समाहिताम्) सम्यक् अर्थात् धर्मपूर्वक आधानरूप में स्थापित की जाती है, वह प्रजाजन (अभिह्वारे) कुटिल अर्थात् छल-कपट की नीति में (पदम्) पैर को (न निदधाति) नहीं रखता, पदन्यास नहीं करता, और न (मृत्यवे) मृत्यु के लिये पदन्यास करता है।
टिप्पणी -
[अभिह्वारे= अभि + ह्वृ कौटिल्ये (भ्वादिः)। कुटिल है छल-कपट से युद्ध करना। यह नीति सच्चे क्षत्रिय को नहीं भाती। सच्चा क्षत्रिय धर्मानुमोदित छल-कपट रहित युद्ध को अपनाता है। क्षत्रिय की समिधा है 'एकोभूत-दाष्ट्रसम्पत्ति' तथा सैन्पवर्ग। वह इन दोनों को युद्ध-यज्ञाग्नि में हुत कर देता है, परन्तु छलकपट का आश्रय नहीं लेता।]