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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
इ॒दं यत्प्रे॒ण्यः शिरो॑ द॒त्तं सोमे॑न॒ वृष्ण्य॑म्। ततः॒ परि॒ प्रजा॑तेन॒ हार्दिं॑ ते शोचयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । यत् ।प्रे॒ण्य: । शिर॑: । द॒त्तम् । सोम॑न । वृष्ण्य॑म् । तत॑: । परि॑ । प्रऽजा॑तेन । हार्दि॑म् । ते॒ । शो॒च॒या॒म॒सि॒ ॥८९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं यत्प्रेण्यः शिरो दत्तं सोमेन वृष्ण्यम्। ततः परि प्रजातेन हार्दिं ते शोचयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । यत् ।प्रेण्य: । शिर: । दत्तम् । सोमन । वृष्ण्यम् । तत: । परि । प्रऽजातेन । हार्दिम् । ते । शोचयामसि ॥८९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इदम्) यह (प्रेण्यः) प्रणय१ वाली पत्नी का (शिरः) शिरस्थ-प्रणय, (यत्) जो कि (वृष्ण्यम्) सुखवर्षी है, जो कि (सोमेन) जगदुत्पादक परमेश्वर ने (दत्तम्) दिया है, (तत् परिप्रजातेन) उस से उत्पन्न हुए प्रणय के कारण (ते) तेरे (हार्दिम्) हृदयवर्ती चित्त को (शोचयामसि) हम शोकयुक्त करते हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र में कारणवश कुपित-पत्नी के प्रति कथन हुआ है। उसे कहा है कि परमेश्वर द्वारा प्रदत्त प्रणय, जिस का स्थान सिर है, वह पति-पत्नी के प्रति सुखवर्षी रूप है; सिर से प्रकट हुए प्रणय द्वारा तेरे चित्त को हम गृहस्थवासी शोकयुक्त या सन्तप्त करते हैं, तुझे समझा कर तुझे प्रकोप करने के कारण प्रायश्चित्तरूप में दु:खित करते हैं, ताकि इस प्रकोप का तू परित्याग कर दे। शिरः= लक्षणया शिरःस्थ प्रणय। यथा 'मञ्चाः क्रोशन्ति= मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति'। सोमेन= षू प्रसवे । हार्दिम= हृदयवर्ती चित्त। यथा 'हृदये चित् संवित्' (योग० ३।३४)। सायणाचार्य के अनुसार सम्बोधन 'हे जायापत्योरन्यतर' द्वारा मन्त्र १ में भी जाया और पति में से अन्यतर का है, मन्त्र २ की व्याख्यानुसार। परन्तु मन्त्र तीन की व्याख्या में सायणानुसार सम्बोधन जायापरक है, यथा- हे जाये']। [१. प्रेण्यः= प्रेमप्रापकस्य यत् इदं शिरः (सायण)। तथा प्रेणा= प्रेम्णा (उद्गीथ तथा वेङ्कटमाधव; ऋ० १०।७१।१)।]