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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रीतिसंजनन सूक्त
मह्यं॑ त्वा मि॒त्रावरु॑णौ॒ मह्यं॑ दे॒वी सर॑स्वती। मह्यं॑ त्वा॒ मध्यं॒ भूम्या॑ उ॒भावन्तौ॒ सम॑स्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठमह्य॑म् । त्वा॒ । मि॒त्रावरु॑णौ । मह्य॑म् । दे॒वी । सर॑स्वती । मह्य॑म् । त्वा॒ । मध्य॑म् । भूम्या॑: । उ॒भौ । अन्तौ॑ । सम् । अ॒स्य॒ता॒म् ॥८९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मह्यं त्वा मित्रावरुणौ मह्यं देवी सरस्वती। मह्यं त्वा मध्यं भूम्या उभावन्तौ समस्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठमह्यम् । त्वा । मित्रावरुणौ । मह्यम् । देवी । सरस्वती । मह्यम् । त्वा । मध्यम् । भूम्या: । उभौ । अन्तौ । सम् । अस्यताम् ॥८९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 89; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण (त्वा) तुझे (मह्यम्) मुझ पति के लिये; तथा (मह्यम्) मुझ पति के लिये (देवी सरस्वती) दिव्य ज्ञान सम्पन्ना वेदवाणी (समस्यताम्) परस्पर सम्बद्ध करें। (मह्यम्) मुझ पति के लिये (भूम्याः मध्यम्) भूमि का मध्यभाग (उभौ अन्तौ) जेसे दोनों अन्त के भागों को (समस्यताम्) सम्बद्ध करता है, वैसे हम दोनों को परस्पर सम्बद्ध करे।
टिप्पणी -
[भूमि का मध्यभाग अर्थात् भूमध्यरेखा [Equator] जैसे भूमि के प्रान्तभागों अर्थात् उत्तरध्रुवीय तथा दक्षिण ध्रुवीय भागों को परस्पर सम्बद्ध करता है, वैसे मेरे मित्र तथा स्नेही मुख्यमन्त्री तथा वरुणनामक राजा निज विवाह-सम्बन्धी नियमों द्वारा हम दोनों को परस्पर सम्बद्ध करे। तथा ज्ञानसम्पन्न वेदवाणी भी ज्ञान प्रदान कर हम दोनों को परस्पर सम्बद्ध करे।