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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अनुमतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनुमति सूक्त

    अन्विद॑नुमते॒ त्वं मंस॑से॒ शं च॑ नस्कृधि। जुषस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि ररास्व नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । इत् । अ॒नु॒ऽम॒ते॒ । त्वम् । मंस॑से । शम् । च॒ । न॒: । कृ॒धि॒ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । र॒रा॒स्व॒। न॒: ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्विदनुमते त्वं मंससे शं च नस्कृधि। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि ररास्व नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । इत् । अनुऽमते । त्वम् । मंससे । शम् । च । न: । कृधि । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । ररास्व। न: ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (अनुमते) हे अनुकूल मति वाली पत्नी ! (त्वम्) तू (अनुमंससे इत्) अनुकूल रूपता को ही अनुकूलरूप मानती है, (च) और इस प्रकार (नः) हमें तू (शम्) सुख शान्ति (कृधि) प्रदान कर (देवि) हे देवि ! पत्नी ! (आहुतम्) आहुतिरूप में आहुत हुई (हव्यम्) वीर्यरूपी हवि की (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक रक्षा कर, (नः) और हमें (प्रजाम्) प्रशस्त अपत्य (ररास्व) प्रदान कर।

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