अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
एमं य॒ज्ञमनु॑मतिर्जगाम सुक्षे॒त्रता॑यै सुवी॒रता॑यै॒ सुजा॑तम्। भ॒द्रा ह्यस्याः॒ प्रम॑तिर्ब॒भूव॒ सेमं य॒ज्ञम॑वतु दे॒वगो॑पा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अनु॑ऽमति: । ज॒गा॒म॒ । सु॒ऽक्षे॒त्रता॑यै । सु॒ऽवी॒रता॑यै । सुऽजा॑तम् । भ॒द्रा । हि । अ॒स्या॒: । प्रऽम॑ति: । ब॒भूव॑ । सा । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अ॒व॒तु॒ । दे॒वऽगो॑पा ॥२१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एमं यज्ञमनुमतिर्जगाम सुक्षेत्रतायै सुवीरतायै सुजातम्। भद्रा ह्यस्याः प्रमतिर्बभूव सेमं यज्ञमवतु देवगोपा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इमम् । यज्ञम् । अनुऽमति: । जगाम । सुऽक्षेत्रतायै । सुऽवीरतायै । सुऽजातम् । भद्रा । हि । अस्या: । प्रऽमति: । बभूव । सा । इमम् । यज्ञम् । अवतु । देवऽगोपा ॥२१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(इमम्, यज्ञम्) इस गृहस्थ यज्ञ में (अनुमतिः) अनुकूलमति वाली पत्नी (आ जगाम) आई है, जो गृहस्थ-यज्ञ (सुक्षेत्रतायै सुवीरतायै) सुक्षेत्रपन के लिये और उत्तम वीरता के लिये (सुजातम्) उत्तम [विवाह विधि से] पैदा हुआ है। (अस्याः) इस अनुमति की (भद्रा) सुखप्रदा तथा कल्याणकारी (प्रमतिः) शोभना मति (हि) निश्चय (बभूव) प्रकट हुई है। (सा) वह अनुमति पत्नी (देवगोपा) पति के माता, पिता आदि देवों द्वारा सुरक्षित हुई (इमम्, यज्ञम्) इस गृहस्थ-यज्ञ की (अवतु) रक्षा करे।
टिप्पणी -
["सुक्षेत्रतायै" क्षेत्रों अर्थात् सन्तानों के उत्तम शरीर पैदा करने के लिये तथा उन शरीरों में वीरता प्रदान करने के लिये। अनुमति पत्नी के ये दो कर्तव्य दर्शाए हैं। क्षेत्र हैं शरीर यथा “इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। शरीरों को सुक्षेत्र बना कर उनमें सद्गुणरूपी बीज बोने चाहिये, और वीरता की भावनाएं भरनी चाहिये। देव हैं विवाहित अनुमति के श्वशुर आदि।]