अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
समि॑न्द्र नो॒ मन॑सा नेष॒ गोभिः॒ सं सू॒रिभि॑र्हरिव॒न्त्सं स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वहि॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वानां॑ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इ॒न्द्र॒ । न॒: । मन॑सा । ने॒ष॒ । गोभि॑: । सम् । सू॒रिऽभि॑: । ह॒रि॒ऽव॒न् । सम् । स्व॒स्त्या । सम् । ब्रह्म॑णा । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । अस्ति॑ । सम् । दे॒वाना॑म् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥१०२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्द्र नो मनसा नेष गोभिः सं सूरिभिर्हरिवन्त्सं स्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवहितं यदस्ति सं देवानां सुमतौ यज्ञियानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इन्द्र । न: । मनसा । नेष । गोभि: । सम् । सूरिऽभि: । हरिऽवन् । सम् । स्वस्त्या । सम् । ब्रह्मणा । देवऽहितम् । यत् । अस्ति । सम् । देवानाम् । सुऽमतौ । यज्ञियानाम् ॥१०२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे साम्राज्याधिपति सम्राट् ! (नः) हम आश्रमवासियों को (मनसा) ज्ञान तथा अवबोधन, और (गोभिः) गौओं के साथ (संनेष) सम्बद्ध कर (हरिवन्) हे अश्वारोहिन ! (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (सम्) हमें सम्बद्ध कर (स्वस्त्या) उत्तम स्थिति के साथ (सन्) हमें सम्बद्ध कर। (ब्रह्मणा) वेदविद्या के साथ (सम्) हमें सम्बद्ध कर (यद्) जो (देवहितम् अस्ति) देवहितकर वस्तु है उस के साथ (सम) हमें सम्बद्ध कर, (यज्ञियानाम्) सोमयज्ञ के योग्य (देवानाम्) विद्वानों और दिव्यगुणी सज्जनों की (सुमतौ) सुमति में [सं नेष] हमारा नयन कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र (१) में अग्नि द्वारा साम्राज्य के प्रधानमन्त्री का वर्णन हुआ है। मन्त्र (२) में सम्राट् का वर्णन हुआ है। आश्रमवासियों ने निज आवश्यकताओं की मांग सम्राट से की है। आश्रम के गुरुओं तथा कर्मचारियों के खान-पान के लिये “गोभिः" द्वारा भी गौ आदि की व्यवस्था मांगी है। मनसा= मन ज्ञाने (दिवादिः), तथा मनु अववोधने (तनादिः) द्वारा आश्रम में ज्ञान-अवबोधन को प्रधानता को सूचित किया है। मन है ज्ञान-अवबोधन का साधन और ज्ञान-अवबोधन है मन द्वारा साध्य। साध्य में साधन का उपचार हुआ है। "यज्ञियानाम्, देवानाम्" द्वारा आश्रमवासियों ने आश्रम के संचालन में इन की सुमति अर्थात् शुभ परामर्श की अभ्यर्थना प्रदर्शित की है।]