अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
यानाव॑ह उश॒तो दे॑व दे॒वांस्तान्प्रेर॑य॒ स्वे अ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॑क्षि॒वांसः॑ पपि॒वांसो॒ मधू॑न्य॒स्मै ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । आ॒ऽअव॑ह: । उ॒श॒त: । दे॒व॒ । दे॒वान् । तान् । प्र । ई॒र॒य॒ । स्वे । अ॒ग्ने॒ । स॒धऽस्थे॑ । ज॒क्षि॒ऽवांस॑: । प॒पि॒ऽवांस॑: । मधू॑नि । अ॒स्मै । ध॒त्त॒ । व॒स॒व॒: । वसू॑नि ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यानावह उशतो देव देवांस्तान्प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे। जक्षिवांसः पपिवांसो मधून्यस्मै धत्त वसवो वसूनि ॥
स्वर रहित पद पाठयान् । आऽअवह: । उशत: । देव । देवान् । तान् । प्र । ईरय । स्वे । अग्ने । सधऽस्थे । जक्षिऽवांस: । पपिऽवांस: । मधूनि । अस्मै । धत्त । वसव: । वसूनि ॥१०२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अग्ने देव) हे साम्राज्य के अग्रणी देवभूत प्रधानमन्त्रिन् ! (उशतः) कामना वाले अर्थात् स्वेच्छा वाले (यान्) जिन (देवान्) गुरुदेवों को (आ अवहः) तू ने [आश्रय में] प्राप्त कराया है, नियुक्त किया है, (तान्) उन्हें (स्वे) अपने (सधस्थे) सह निवासस्थान आश्रम में (प्रेरय) निवास के लिये प्रेरित कर। (वसवः) हे वसुकोटि के गुरुओं (मधूनि) मधुर (जक्षिवांसः, पपिवांसः) भोज्यों और पेथों का खाना-पीना कर के, (वसूनि) निज ज्ञान-धन (अस्मै) इस आश्रम के लिये (धत) प्रदान करो।
टिप्पणी -
[आ अवहः= लङ् लकार, वह प्रापणे (भ्वादिः)। उपतः = जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक सेवा करना स्वीकार किया है, उन्हें। वसवः = आश्रम की स्थापना की प्रारम्भिक अवस्था में प्रविष्ट बच्चों की शिक्षा के लिये प्राथमिक कोटि के वसु-गुरुओं की ही आवश्यकता होती है, रुद्र और आदित्य कोटि के गुरुओं की नहीं। ये "वसु", विद्या, सदाचार, सत्कर्मों और योगाभ्यास की दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम के लिये अधिक उपादेय हैं। इन गुरुओं के खान-पान आदि की व्यवस्था आश्रमाधीन है, जिसका कि प्रबन्ध राज्य द्वारा होने का विधान हुआ है। "सधस्थ" है सहस्थान, आश्रम; जिसमें कि गुरुदेव सहनिवास करते हैं] ।