अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - त्रिपदार्ची भुरिग्गायत्री
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
यज्ञ॑ य॒ज्ञं ग॑च्छ य॒ज्ञप॑तिं गच्छ। स्वां योनिं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयज्ञ॑ । य॒ज्ञम् । ग॒च्छ॒। य॒ज्ञऽप॑तिम् । ग॒च्छ॒। स्वाम् । योनि॑म् । ग॒च्छ॒ । स्वाहा॑ ॥१०२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ। स्वां योनिं गच्छ स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ । यज्ञम् । गच्छ। यज्ञऽपतिम् । गच्छ। स्वाम् । योनिम् । गच्छ । स्वाहा ॥१०२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(यज्ञ) हे सोमयज्ञ अर्थात् ब्रह्मचर्ययज्ञ ! (यज्ञम्) यज्ञनामक यष्टव्य-परमेश्वर की शरण में (गच्छ) तू जा (यज्ञपतिम्) इस यज्ञ के पति परमेश्वर की शरण में (गच्छ) तू जा। (स्वाम्) अपनी (योनिम्) योनि अर्थात् उत्पादिका पारमेश्वरी-माता की शरण में (गच्छ) जा (स्वाहा) एतनिमित्त हम प्रतिदिन के यज्ञ में आहुति देते हैं।
टिप्पणी -
[ब्रह्मचर्याश्रम में जो ब्रह्मचर्य किया जाता है, उसे यज्ञ जानकर, उसे परमेश्वरार्पित करते हुए उसका संचालन करना चाहिये। "यज्ञ" परमेश्वर का नाम है। यथा "तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन पुरुषं जातमग्रतः” (यजु० ३१।९) में, "सहस्रशीर्ष" (यजु० ३१।१) पुरुष को "यज्ञं पुरुषम्" द्वारा निर्दिष्ट किया है]।