अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
मन॑सस्पत इ॒मं नो॑ दि॒वि दे॒वेषु॑ य॒ज्ञम्। स्वाहा॑ दि॒वि स्वाहा॑ पृथि॒व्यां स्वाहा॒न्तरि॑क्षे॒ स्वाहा॒ वाते॑ धां॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमन॑स: । प॒ते॒ । इ॒मम् । न॒: । दि॒वि । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञम् । स्वाहा॑ । दि॒वि । स्वाहा॑ । पृ॒थि॒व्याम् । स्वाहा॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । स्वाहा॑ । वाते॑ । धा॒म् । स्वाहा॑ ॥१०२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मनसस्पत इमं नो दिवि देवेषु यज्ञम्। स्वाहा दिवि स्वाहा पृथिव्यां स्वाहान्तरिक्षे स्वाहा वाते धां स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठमनस: । पते । इमम् । न: । दिवि । देवेषु । यज्ञम् । स्वाहा । दिवि । स्वाहा । पृथिव्याम् । स्वाहा । अन्तरिक्षे । स्वाहा । वाते । धाम् । स्वाहा ॥१०२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(मनसस्पते) ज्ञान और अवबोधन के पति हे प्रधानाचार्य! (दिवि) ज्ञान-अवबोधन द्वारा द्योतमान ब्रह्मचर्याश्रम में (इमम्) इस किये गए (यज्ञम्) यज्ञ को (नः) हमारे (देवेषु) वसु नामक गुरुदेवों [और ब्रह्मचारियों में] (धाम्) स्थापित कर, [कि वे (स्वाहा) स्वाहा द्वारा, इस यज्ञ को प्रतिदिन किया करें], और “दिविस्वाहा, पृथिव्यां स्वाहा, अन्तरिक्षे स्वाहा, वाते स्वाहा" पूर्वक प्रतिदिन किया करें। [प्रधानाचार्य का उत्तर है कि] मैंने देवों आदि में इस यज्ञ की स्थापना कर दी है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में प्रधानमन्त्री ने प्रधानाचार्य को यज्ञस्थापन का निर्देश किया है, और प्रधानाचार्य ने "धाम्" द्वारा उत्तर दिया है। "मनसस्पते" में मनस् का अर्थ "मनसा" के सदृश है (मन्त्र २)। मन्त्र उक्ति-प्रत्युक्तिरूप है। भावना क्लिष्ट है। अतः यथाप्रतीत अर्थ किया गया है। अर्थ की दृष्टि से [ ] इन कोष्ठों में उचित पदों का निवेश आवश्यक प्रतीत हुआ है]।