अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - एकपदा साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - विराट् सूक्त
ऊर्ज॒ एहि॒ स्वध॑ एहि॒ सूनृ॑त॒ एहीरा॑व॒त्येहीति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऊर्जे॑ । आ । इ॒हि॒ । स्वधे॑ । आ । इ॒हि॒ । सूनृ॑ते । आ । इ॒हि॒ । इरा॑ऽवति । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ज एहि स्वध एहि सूनृत एहीरावत्येहीति ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्जे । आ । इहि । स्वधे । आ । इहि । सूनृते । आ । इहि । इराऽवति । आ । इहि । इति ॥११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 2;
मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(ऊर्जे) हे बल और प्राण-प्रद अन्नरूप-विराट्, (एहि) तू आ, (स्वधे) हे स्वधारण-पोषण की शक्ति देने वाली विराट् (एहि) तू आ, (सूनृते) हे सत्य और प्रिय-वाक्-रूप विराट् (एहि) तू आ (इरावति) हे विविधान्नोत्पादक जलों वाली विराट (एहि इति) तू आ।
टिप्पणी -
[उत्क्रान्त-विराट् जब भूमण्डल में चहुदिशि फैल गई (मन्त्र १), तब देवों और मनुष्यों ने अनुभव किया कि हम दोनों के जीवन इसी विराट् पर आश्रित हैं, अतः इस का उन दोनों ने स्वागत करते हुए कहा (मन्त्र ४) कि "ऊर्जे एहि" इत्यादि। अभिप्राय यह कि उत्क्रान्त-विराट् की स्थिर-स्थिति [अतिष्ठत] में चहुंदिशि रहने वाली प्रजाओं में "ऊर्जा" आदि की प्राप्ति हो जाती, न ऊर्जा का अभाव होता, न प्रजाओं पर किसी शत्रु का आक्रमण होता, सब प्रजाएं स्वयं निजधारण-पोषण में स्वतन्त्र होतीं, सर्वत्र प्रिय और सत्य वाक् का प्रसार होता तथा अन्न और जल भी प्रभूत मात्रा में सब को प्राप्त होता है। इरावती= इरा अन्ननाम (निघं० २।७); इरा जलनाम यथा इरावान् समुद्रः" (उणा० २।२९, महर्षि दयानन्द), तथा इरा= water (आप्टे) +वती (मतुप्) "भूमा" अर्थ में]।