अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तस्या॒ इन्द्रो॑ व॒त्स आसी॑द्गाय॒त्र्यभि॒धान्य॒भ्रमूधः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्या॑: । इन्द्र॑: । व॒त्स: । आसी॑त् । गा॒य॒त्री । अ॒भि॒ऽधानी॑ । अ॒भ्रम् । ऊध॑: ॥११.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्या इन्द्रो वत्स आसीद्गायत्र्यभिधान्यभ्रमूधः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्या: । इन्द्र: । वत्स: । आसीत् । गायत्री । अभिऽधानी । अभ्रम् । ऊध: ॥११.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 2;
मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(तस्याः) उस [चतुर्धा अन्तरिक्षव्यापिनी विराट् ?] का (वत्सः) वत्स (इन्द्रः आसीत्) इन्द्र था, (गायत्री) गायत्री (अभिधानी) बन्धन-रज्जु और (अभ्रम्) मेघ (ऊधः) दुग्धाशय था ।
टिप्पणी -
[मन्त्र (५) में अन्तरिक्षव्यापिनी विराट को, गोरूप में रूपित किया है। वत्सरूपी इन्द्र है विद्युत् और विद्युत् में आविष्ट मेघ है ऊधस्१ दुग्धाशय। गायत्री को अभिधानी अर्थात् बन्धनरज्जु कहा है। गौ को रज्जु द्वारा बांधकर दोहा जाता है, ताकि वह इधर-उधर विचलित न हो सके। गौ, बिना वत्स के दूध नहीं देती। विराट् गौ का वत्स है विद्युत्। विद्युत् द्वारा आविष्ट अभ्र से वर्षा द्वारा जलदुग्ध प्राप्त होता है, अतः विद्युत् वत्सरूप है। अभ्र से जलदुग्ध प्राप्त होता है अतः अभ्र को ऊधः कहा है। गायत्री द्वारा गायत्री का अधिपति परमेश्वर अभिप्रेत है। यथा "यो गायत्र्याः अधिपतिर्बभूव" (अथर्व० ४।३५।६)। वह परमेश्वर अभिधानी रूप है। उस के नियम द्वारा अन्तरिक्ष में बन्धे अभ्र आदि जलदुग्ध [प्रदान करते हैं]। [१. ऊधः= ऊधर्=udder]।