अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - त्रिपदार्ची त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
स॑र्व॒दा वा ए॒ष यु॒क्तग्रा॑वा॒र्द्रप॑वित्रो॒ वित॑ताध्वर॒ आहृ॑तयज्ञक्रतु॒र्य उ॑प॒हर॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठस॒र्व॒दा । वै । ए॒ष: । यु॒क्तऽग्रा॑वा । आ॒र्द्रऽप॑वित्र: । वित॑तऽअध्वर: । आहृ॑तऽयज्ञक्रतु: । य: । उ॒प॒ऽहर॑ति ॥७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वदा वा एष युक्तग्रावार्द्रपवित्रो वितताध्वर आहृतयज्ञक्रतुर्य उपहरति ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वदा । वै । एष: । युक्तऽग्रावा । आर्द्रऽपवित्र: । विततऽअध्वर: । आहृतऽयज्ञक्रतु: । य: । उपऽहरति ॥७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 2;
मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(यः) जो (उपहरति) उपहार रूप में अन्न देता है (वै) निश्चय से (एषः) यह (सर्वदा) सब काल (युक्तग्रावा) सिलवट्टों को तय्यार रखता है, (आर्द्रपवित्रः) छानने का साधन उस का गीला रहता है, (आहृत यज्ञ क्रतुः) यज्ञ और क्रतु उस के होते रहते हैं, (वितताध्वरः) और अध्वर जारी रहता है।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह कि सब काल अर्थात् जब भी अतिथि आएं उन की सेवा के लिये तय्यार रहना मानो सभी प्रकार के यज्ञों और क्रतुओं को करना है]।