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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - पञ्चपदा विराट्पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    स य ए॒वं वि॒द्वान्न द्वि॒षन्न॑श्नीया॒न्न द्वि॑ष॒तोऽन्न॑मश्नीया॒न्न मी॑मांसि॒तस्य॒ न मी॑मां॒समा॑नस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: ।य: । ए॒वम् । वि॒द्वान् । न । द्वि॒षन् । अ॒श्नी॒या॒त् । न । द्वि॒ष॒त: । अन्न॑म् । अ॒श्नी॒या॒त् । न । मी॒मां॒सि॒तस्य॑ । न । मी॒मां॒समा॑नस्य ॥७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स य एवं विद्वान्न द्विषन्नश्नीयान्न द्विषतोऽन्नमश्नीयान्न मीमांसितस्य न मीमांसमानस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: ।य: । एवम् । विद्वान् । न । द्विषन् । अश्नीयात् । न । द्विषत: । अन्नम् । अश्नीयात् । न । मीमांसितस्य । न । मीमांसमानस्य ॥७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 7

    भाषार्थ -
    (सः) वह (यः) जो (एवम्) इस प्रकार (विद्वान्) अतिथियज्ञ के महत्त्व को समझता है वह [अतिथिपति के प्रति] (द्विषन्) द्वेषभाव रखता हुआ (न अश्नीयात्) [उसका] अन्न न खाएं और (न द्विषतः, अन्नम् अश्नीयात्) न द्वेष भाव रखने वाले [अतिथिपति] का अन्न खाए, (न मीमांसितस्य) न उस का अन्न खाए जिस ने निश्चय कर लिया हो कि अतिथियज्ञ निष्फल है, (न मीमांसमानस्य) और न उसका अन्न खाए जोकि अतिथियज्ञ के सम्बन्ध में सन्दिग्धावस्था में हो, [कि अतिथियज्ञ करना चाहिए या नहीं]।

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