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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६

    इन्द्र॒ प्र णो॑ धि॒तावा॑नं य॒ज्ञं विश्वे॑भिर्दे॒वेभिः॑। ति॒र स्त॑वान विश्पते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । प्र । न॒: । धि॒तऽवा॑नम् । य॒ज्ञम् । विश्वे॑भि: । दे॒वेभि॑: । ति॒र। स्त॒वा॒न॒ । वि॒श्प॒ते॒ ॥६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र प्र णो धितावानं यज्ञं विश्वेभिर्देवेभिः। तिर स्तवान विश्पते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । प्र । न: । धितऽवानम् । यज्ञम् । विश्वेभि: । देवेभि: । तिर। स्तवान । विश्पते ॥६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (স্তবান) হে প্রশংশিত ! (বিশ্পতে) হে প্রজাপালক ! (ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র ! [অনেক ঐশ্বর্যসম্পন্ন রাজন্] (বিশ্বেভিঃ) সকল (দেবেভিঃ) বিদ্বানদের সাথে (নঃ) আমাদের জন্য (ধিতবানম্) সেবনীয় ধারণ করায় যে (যজ্ঞম্) যজ্ঞ [বিদ্বানদের সৎকার, সৎসঙ্গ এবং দান] (প্র তির) বৃদ্ধি করো॥৩॥

    भावार्थ - প্রজাপালক রাজার উচিত বিদ্বানদের সাথে বিদ্যা আদি শ্রেষ্ঠ কর্মের উন্নতি করে প্রজাদের ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করুক ॥৩॥

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