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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यन्मे॑ छि॒द्रं चक्षु॑षो॒ हृद॑यस्य॒ मन॑सो॒ वाति॑तृण्णं॒ बृह॒स्पति॑र्मे॒ तद्द॑धातु। शं नो॑ भवतु॒ भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। मे॒। छि॒द्रम्। चक्षु॑षः। हृद॑यस्य। मन॑सः। वा॒। अति॑तृण्ण॒मित्यति॑तृण्णम्। बृह॒स्पतिः॑। मे॒। तत्। द॒धा॒तु॒ ॥ शम्। नः॒। भ॒व॒तु॒। भुव॑नस्य। यः। पतिः॑ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मे च्छिद्रञ्चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृणम्बृहस्पतिर्मे तद्दधातु । शन्नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। मे। छिद्रम्। चक्षुषः। हृदयस्य। मनसः। वा। अतितृण्णमित्यतितृण्णम्। बृहस्पतिः। मे। तत्। दधातु॥ शम्। नः। भवतु। भुवनस्य। यः। पतिः॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 2
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    मन्त्रार्थ -
    (मे) मेर (चक्षुषः-हृदयस्य मनसः-वा) नेत्र हृदय या मन का (यत्-छिद्रम्-अतितृणम्) जो छिद्र अत्यन्त खुल गया (तत्-मे बृहस्पतिः-दधातु) उसे मेरे लिए मुझ पर कृपा करके बृहस्पति परमात्मा बन्द कर दे (भुवनस्य यः पतिः) जो कि विश्व का स्वामी है वह इस प्रकार (नः-शं भवतु) हमारे लिए कल्याणकारी हो ॥२॥

    विशेष - ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥

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