यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 15
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - राजेश्वरौ देवते
छन्दः - विराट् कृतिः
स्वरः - निषादः
6
य॒माय॑ यम॒सूमथ॑र्व॒भ्योऽव॑तोका संवत्स॒राय॑ पर्य्या॒यिणीं॑ परिवत्स॒रायावि॑जाता- मिदावत्स॒राया॒तीत्व॑रीमिद्वत्स॒राया॑ति॒ष्कद्व॑रीं वत्स॒राय॒ विज॑र्जरा संवत्स॒राय॒ पलि॑क्नीमृ॒भुभ्यो॑ऽ जिनस॒न्धꣳ सा॒ध्येभ्य॒श्चर्म॒म्नम्॥१५॥
स्वर सहित पद पाठय॒माय॑। य॒म॒सूमिति॑ यम॒ऽसूम्। अथ॑र्वभ्य॒ इत्यथ॑र्वऽभ्यः। अव॑तोका॒मित्यव॑ऽतोकाम्। सं॒व॒त्स॒राय॑। प॒र्य्या॒यिणी॑म्। प॒र्य्या॒यिनी॒मिति॒ परिऽआ॒यिनी॒॑म्। प॒रि॒व॒त्स॒रायेति॑ परिऽवत्स॒राय॑। अवि॑जाता॒मित्यवि॑ऽजाताम्। इ॒दा॒व॒त्स॒राय॑। अ॒तीत्व॑री॒मित्य॑ति॒ऽइत्व॑रीम्। इ॒द्व॒त्स॒रायेती॑त्ऽवत्स॒राय॑। अ॒ति॒ष्कद्व॑रीम्। अ॒ति॒स्कद्व॑री॒मित्य॑ति॒ऽस्कद्व॑रीम्। व॒त्स॒राय॑। विज॑र्जरा॒मिति॒ विऽज॑र्जराम्। सं॒व॒त्स॒राय॑। पलि॑क्नीम्। ऋ॒भुभ्य॒ इत्यृ॒भुऽभ्यः॑। अ॒जि॒न॒स॒न्धमित्य॑जिनऽस॒न्धम्। सा॒ध्येभ्यः॑। च॒र्म॒म्नमिति॑ चर्म॒ऽम्नम् ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमाय यमसूमथर्वभ्योवतोकाँ सँवत्सराय पर्यायिणीम्परिवत्सरायाविजातामिदावत्सरायातीत्वरीमिद्वत्सरायातिष्कद्वरीँवत्सराय विजर्जराँ सँवत्सराय पलिक्नीमृभुभ्यो जिनसंन्धँ साध्येभ्यश्चर्मम्नम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
यमाय। यमसूमिति यमऽसूम्। अथर्वभ्य इत्यथर्वऽभ्यः। अवतोकामित्यवऽतोकाम्। संवत्सराय। पर्य्यायिणीम्। पर्य्यायिनीमिति परिऽआयिनीम्। परिवत्सरायेति परिऽवत्सराय। अविजातामित्यविऽजाताम्। इदावत्सराय। अतीत्वरीमित्यतिऽइत्वरीम्। इद्वत्सरायेतीत्ऽवत्सराय। अतिष्कद्वरीम्। अतिस्कद्वरीमित्यतिऽस्कद्वरीम्। वत्सराय। विजर्जरामिति विऽजर्जराम्। संवत्सराय। पलिक्नीम्। ऋभुभ्य इत्यृभुऽभ्यः। अजिनसन्धमित्यजिनऽसन्धम्। साध्येभ्यः। चर्मम्नमिति चर्मऽम्नम्॥१५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे जगदीश्वर वा राजन्! आप (यमाय) नियमकर्त्ता के लिए (यमसूम्) नियन्ताओं को उत्पन्न करने वाली को (अथर्वभ्यः) अहिंसकों के लिए (अवतोकाम्) जिसकी सन्तान बाहर निकल गई हो, उस स्त्री को (संवत्सराय) प्रथम संवत्सर के अर्थ (पर्यायिणीम्) सब ओर से काल के क्रम को जानने वाली को (परिवत्सराय) दूसरे वर्ष के निर्णय के लिए (अविजाताम्) ब्रह्मचारिणी कुमारी को (इदावत्सराय) तीसरे इदावत्सर में कार्य साधने के अर्थ (अतीत्वरीम्) अत्यन्त चलने वाली को (इद्वत्सराय) पांचवें इद्वत्सर के ज्ञान के अर्थ (अतिष्कद्वरीम्) अतिशय कर जानने वाली को (वत्सराय) सामान्य संवत्सर के लिये (विजर्जराम्) वृद्धा स्त्री को (संवत्सराय) चौथे अनुवत्सर के लिए (पलिक्नीम्) श्वेत केशों वाली को (ऋभुभ्यः) बुद्धिमानों के अर्थ (अजिनसन्धम्) नहीं जीतने योग्य पुरुषों से मेल रखने वाले को (साध्येभ्यः) और साधने योग्य कार्यों के लिए (चर्मम्नम्) विज्ञान शास्त्र का अभ्यास करनेवाले पुरुष को उत्पन्न कीजिए॥१५॥
भावार्थ - प्रभव आदि ६० संवत्सरों में पांच-पांच कर १२ बारह युग होते हैं, उन प्रत्येक युग में क्रम से संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। ये पांच संज्ञा हैं, उन सब काल के अवयवों के मूल संवत्सरों को विशेष कर जो स्त्री लोग यथावत् जान के व्यर्थ नहीं गंवाती, वे सब प्रयोजनों की सिद्धि को प्राप्त होती हैं॥१४॥
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