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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - पञ्चमः
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    तप॑से कौला॒लं मा॒यायै॑ क॒र्मार॑ꣳ रू॒पाय॑ मणिका॒रꣳ शु॒भे वप॒ꣳ श॑र॒व्यायाऽइषुका॒रꣳ हे॒त्यै ध॑नुष्का॒रं कर्म॑णे ज्याका॒रं दि॒ष्टाय॑ रज्जुस॒र्जं मृ॒त्यवे॑ मृग॒युमन्त॑काय श्व॒निन॑म्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तप॑से। कौ॒ला॒लम्। मा॒यायै॑। क॒र्मार॑म्। रू॒पा॑य। म॒णि॒का॒रमिति॑ मणिऽका॒रम्। शु॒भे। व॒पम्। श॒र॒व्या᳖यै। इ॒षु॒का॒रमिती॑षुऽका॒रम्। हे॒त्यै। ध॒नु॒ष्का॒रम्। ध॒नुः॒का॒रमिति॑ धनुःऽका॒रम्। कर्म॑णे। ज्या॒का॒रमिति॑ ज्याऽका॒रम्। दि॒ष्टाय॑। र॒ज्जु॒स॒र्जमिति॑ रज्जुऽस॒र्जम्। मृ॒त्यवे॑। मृ॒ग॒युमिति॑ मृग॒ऽयुम्। अन्त॑काय। श्व॒निन॒मिति॑ श्व॒ऽनिन॑म् ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तपसे कौलालम्मायायै कर्मारँ रूपाय मणिकारँ शुभे वपँ शरव्यायाऽइषुकारँ हेत्यै धनुष्कारङ्कर्मणे ज्याकारन्दिष्टाय रज्जुसर्जम्मृत्यवे मृगयुमन्तकाय श्वनिनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तपसे। कौलालम्। मायायै। कर्मारम्। रूपाय। मणिकारमिति मणिऽकारम्। शुभे। वपम्। शरव्यायै। इषुकारमितीषुऽकारम्। हेत्यै। धनुष्कारम्। धनुःकारमिति धनुःऽकारम्। कर्मणे। ज्याकारमिति ज्याऽकारम्। दिष्टाय। रज्जुसर्जमिति रज्जुऽसर्जम्। मृत्यवे। मृगयुमिति मृगऽयुम्। अन्तकाय। श्वनिनमिति श्वऽनिनम्॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    हे जगदीश्वर वा राजन्! आप (तपसे) वर्त्तन पकाने के ताप को झेलने के अर्थ (कौलालम्) कुम्हार के पुत्र को (मायायै) बुद्धि बढ़ाने के लिए (कर्मारम्) उत्तम शोभित काम करनेहारे को (रूपाय) सुन्दर स्वरूप बनाने के लिए (मणिकारम्) मणि बनाने वाले को (शुभे) शुभ आचरण के अर्थ (वपम्) जैसे किसान खेत को वैसे विद्यादि शुभ गुणों के बोने वाले को (शरव्यायै) बाणों के बनाने के लिए (इषुकारम्) बाणकर्त्ता को (हेत्यै) वज्र आदि हथियार बनाने के अर्थ (धनुष्कारम्) धनुष् आदि के कर्त्ता को (कर्मणे) क्रियासिद्धि के लिए (ज्याकारम्) प्रत्यञ्चा के कर्त्ता को (दिष्टाय) और जिस से अतिरचना हो उस के लिए (रज्जुसर्जम्) रज्जु बनाने वाले को उत्पन्न कीजिए और (मृत्यवे) मृत्यु करने को प्रवृत्त हुए (मृगयुम्) व्याध को तथा (अन्तकाय) अन्त करनेवाले के हितकारी (श्वनिनम्) बहुत कुत्ते पालने वाले को अलग बसाइये॥७॥

    भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिए कि जैसे परमेश्वर ने सृष्टि में रचनाविशेष दिखाये हैं, वैसे शिल्पविद्या से और सृष्टि के दृष्टान्त से विशेष रचना किया करें और हिंसक तथा कुत्तों के पालने वाले चण्डालादि को दूर बसावें॥७॥

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