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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आ द॑दे॒ नारि॑रसि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पूष्णः॑। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। नारिः॑। अ॒सि॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे नारिरसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। नारिः। असि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जिस कारण आप (नारिः) नायक (असि) हैं, इससे (सवितुः) जगत् के उत्पादक (देवस्य) समस्त सुख के दाता (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (अश्विनोः) अध्यापक और उपदेशक के (बाहुभ्याम्) बल पराक्रम से (पूष्णः) पुष्टिकर्त्ता जन के (हस्ताभ्याम्) हाथों से (त्वा) आपको (आ, ददे) अच्छे प्रकार ग्रहण करता हूं॥१॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग उत्तम विद्वानों को प्राप्त होके उनसे विद्या, शिक्षा ग्रहण कर इस सृष्टि में नायक होओ॥१॥

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