यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 17
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
5
अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्।स स॒ध्रीचीः॒ स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ऽआ व॑रीवर्त्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः॥१७॥
स्वर सहित पद पाठअप॑श्यम्। गो॒पाम्। अनि॑पद्यमान॒मित्यनि॑ऽपद्यमानम्। आ। च॒। परा॑। च॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। चर॑न्तम् ॥ सः। स॒ध्रीचीः। सः। विषू॑चीः। वसा॑नः। आ। व॒री॒व॒र्त्ति॒। भुव॑नेषु। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपश्यङ्गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् । स सध्रीचीः स विषूचीर्वसानऽआ वरीवर्त्ति भुवनेष्वन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अपश्यम्। गोपाम्। अनिपद्यमानमित्यनिऽपद्यमानम्। आ। च। परा। च। पथिभिरिति पथिऽभिः। चरन्तम्॥ सः। सध्रीचीः। सः। विषूचीः। वसानः। आ। वरीवर्त्ति। भुवनेषु। अन्तरित्यन्तः॥१७॥
विषय - ईश्वर के उपासक कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! मैं जिस (पथिभिः) शुद्ध ज्ञान के मार्गों से (आ, चरन्तम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (परा) परभाग में भी प्राप्त होते हुए (अनिपद्यमानम्) अचल (गोपाम्) रक्षक जगदीश्वर को (अपश्यम्) देखूं (स, च) वह भी (सध्रीचीः) साथ वर्त्तमान दिशाओं (च) और (सः) वह (विषूचीः) व्याप्त उपदिशाओं को (वसानः) आच्छादित करनेवाला हुआ (भुवनेषु) लोक-लोकान्तरों के (अन्तः) बीच (आ, वरीवर्त्ति) अच्छे प्रकार सबका आवरण करता वा वर्त्तमान है, उसको आप लोग भी देखो॥१७॥
भावार्थ - जो मनुष्य सब लोकों में अभिव्यापी अन्तर्यामी रूप से प्राप्त अधर्मी अविद्वान् और अयोगी लोगों के न जानने योग्य परमात्मा को जानकर अपने आत्मा के साथ युक्त करते हैं, वे सब धर्मयुक्त मार्गों को प्राप्त होकर शुद्ध होते हैं॥१७॥
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