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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 19
    ऋषिः - आथर्वण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    हृ॒दे त्वा॒ मन॑से त्वा दि॒वे त्वा॒ सूर्य्या॑य त्वा।ऊ॒र्ध्वोऽअ॑ध्व॒रं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हृ॒दे। त्वा॒। मन॑से। त्वा॒। दि॒वे। त्वा॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध्व॒रम्। दि॒वि। दे॒वेषु॑। धे॒हि॒ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हृदे त्वा मनसे त्वा दिवे त्वा सूर्याय त्वा । ऊर्ध्वा अध्वरन्दिवि देवेषु धेहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हृदे। त्वा। मनसे। त्वा। दिवे। त्वा। सूर्य्याय। त्वा। ऊर्ध्वः। अध्वरम्। दिवि। देवेषु। धेहि॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    हे जगदीश्वर! जिस (हृदे) हृदय की चेतनता के लिये (त्वा) आपको (मनसे) विज्ञानवान् अन्तःकरण होने के अर्थ (त्वा) आपको (दिवे) विद्या के प्रकाश वा विद्युत् विद्या की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपको (सूर्य्याय) सूर्यादि लोकों के ज्ञानार्थ (त्वा) आपका हम लोग ध्यान करें सो (ऊर्ध्वः) सबके उत्कृष्ट आप (दिवि) उत्तम व्यवहार और (देवेषु) विद्वानों में (अध्वरम्) अहिंसामय यज्ञ का (धेहि) प्रचार कीजिये॥१९॥

    भावार्थ - जो मनुष्य सत्यभाव से आत्मा और अन्तःकरण की शुद्धि के लिये और सृष्टिविद्या के अर्थ ईश्वर की उपासना करते हैं, उनका वह कृपालु ईश्वर विद्या और धर्म के दान से सब दुःखों से उद्धार करता है॥१९॥

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