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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 42
    ऋषिः - शंयुर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः
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    य॒ज्ञाय॑ज्ञा वोऽअ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से।प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न श॑ꣳसिषम्॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञाय॒ज्ञेति॑ य॒ज्ञाऽय॑ज्ञा॒। वः॒। अ॒ग्नये॑। गि॒रागि॒रेति॑ गि॒राऽगि॑रा। च॒। दक्ष॑से। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। व॒यम्। अ॒मृत॑म्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। प्रि॒यम्। मि॒त्रम्। न। श॒ꣳसि॒ष॒म् ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञा वोऽअग्नये गिरागिरा च दक्षसे । प्रप्र वयममृतञ्जातवेदसम्प्रियम्मित्रन्न शँसिषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञायज्ञेति यज्ञाऽयज्ञा। वः। अग्नये। गिरागिरेति गिराऽगिरा। च। दक्षसे। प्रप्रेति प्रऽप्र। वयम्। अमृतम्। जातवेदसमिति जातऽवेदसम्। प्रियम्। मित्रम्। न। शꣳसिषम्॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 42
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    Meaning -
    In every yajna, by every word, for the sake of Agni, power of light, energy, intelligence and expertise, we invite, honour and celebrate you. Let us all together celebrate and sing in praise of Agni, immortal and omniscient lord, as a darling friend of ours.

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