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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - विराडास्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अयो॑मुखाः सू॒चीमु॑खा॒ अथो॑ विकङ्क॒तीमु॑खाः। क्र॒व्यादो॒ वात॑रंहस॒ आ स॑जन्त्व॒मित्रा॒न्वज्रे॑ण॒ त्रिष॑न्धिना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अय॑:ऽमुखा: । सू॒चीऽमु॑खा: । अथो॒ इति॑ । वि॒क॒ङ्क॒तीऽमु॑खा: । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । वात॑ऽरंहस: । आ । स॒ज॒न्तु॒ । अ॒मित्रा॑न् । वज्रे॑ण । त्रिऽसं॑धिना ॥१२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयोमुखाः सूचीमुखा अथो विकङ्कतीमुखाः। क्रव्यादो वातरंहस आ सजन्त्वमित्रान्वज्रेण त्रिषन्धिना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अय:ऽमुखा: । सूचीऽमुखा: । अथो इति । विकङ्कतीऽमुखा: । क्रव्यऽअद: । वातऽरंहस: । आ । सजन्तु । अमित्रान् । वज्रेण । त्रिऽसंधिना ॥१२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अयोमुखाः) लोहे समान [कठोर] मुखवाले, (सूचीमुखाः) सुई के तुल्य [पैने] मुखवाले, (विकङ्कतीमुखाः) शमी वृक्षों के से [कंटीले] मुखवाले, (क्रव्यादः) मांस खानेवाले (अथो) और (वातरंहसः) पवन के से वेगवाले [पशु पक्षी] (त्रिषन्धिना) त्रिसन्धि [म० २। विद्वान्] करके (वज्रेण) वज्र से [मारे गये] (अमित्रान्) वैरियों को (आ सजन्तु) चिपट जावें ॥३॥

    भावार्थ - वीर सेनापति सब शत्रुओं को मार कर गिरा देवे कि उनकी लोथों को गीदड़ गिद्ध आदि चींथ-चींथ कर खा जावें ॥३॥

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