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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - भुरिक् साम्नी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स य ए॒वंवि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नाति॑सृष्टो जु॒होति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न । अति॑ऽसृष्ट: । जु॒होति॑ ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स य एवंविदुषा व्रात्येनातिसृष्टो जुहोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन । अतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक परमात्मा को (विदुषा) जानते हुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अतिसृष्टः) आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करता है, (सः) वह [गृहस्थ] ॥४॥

    भावार्थ - गृहस्थ को योग्य है किआदरपूर्वक विद्वान् मर्यादापुरुष सत्यव्रतधारी अतिथि की आज्ञा से उत्तम-उत्तमकर्म करता रहे, जिससे उसकी मर्यादा और कीर्ति संसार में स्थिर होवे ॥४-७॥

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