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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    पर्य॑स्या॒स्मिंल्लो॒क आ॒यत॑नं शिष्यते॒ य ए॒वं वि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नाति॑सृष्टोजु॒होति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । अ॒स्य॒ । अ॒स्मिन् । लो॒के । आ॒ऽयत॑नम् । शि॒ष्य॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न। अति॑ऽसृष्ट: । जु॒हो॒ति॒ ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्यस्यास्मिंल्लोक आयतनं शिष्यते य एवं विदुषा व्रात्येनातिसृष्टोजुहोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । अस्य । अस्मिन् । लोके । आऽयतनम् । शिष्यते । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन। अतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (अस्मिन् लोके) इससंसार में (अस्य) उस [गृहस्थ] की (आयतनम्) मर्यादा (परि) सब प्रकार (शिष्यते)शेष रह जाती है, (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक [परमात्मा] को (विदुषा) जानतेहुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अतिसृष्टः) आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करता है ॥७॥

    भावार्थ - गृहस्थ को योग्य है किआदरपूर्वक विद्वान् मर्यादापुरुष सत्यव्रतधारी अतिथि की आज्ञा से उत्तम-उत्तमकर्म करता रहे, जिससे उसकी मर्यादा और कीर्ति संसार में स्थिर होवे ॥४-७॥

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