अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अथ॒ य ए॒वंवि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नान॑तिसृष्टो जु॒होति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअथ॑ । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न । अन॑तिऽसृष्ट: । जु॒होति॑ ॥१२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अथ य एवंविदुषा व्रात्येनानतिसृष्टो जुहोति ॥
स्वर रहित पद पाठअथ । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन । अनतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 8
विषय - यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।
पदार्थ -
(अथ) और फिर (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक परमात्मा को (विदुषा) जानते हुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अनतिसृष्टः) नहीं आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करताहै ॥८॥
भावार्थ - जो अयोग्य गृहस्थनीतिज्ञ वेदवेत्ता अतिथि की आज्ञा बिना मनमाना काम करने लगता है, वह अनधिकारीहोने से शुभ कार्य सिद्ध नहीं कर सकता और न लोग उसकी कुमर्यादा को मानते हैं॥८-११॥
टिप्पणी -
८−(अथ) अपि च (अनतिसृष्टः) अनाज्ञापितः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४ ॥