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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ प्रथ॒मोऽपा॒नः सा पौ॑र्णमा॒सी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । प्र॒थ॒म: । अ॒पा॒न:। सा । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सी ॥१६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य प्रथमोऽपानः सा पौर्णमासी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । प्रथम: । अपान:। सा । पौर्णऽमासी ॥१६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य)व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (प्रथमः) पहिला (अपानः) अपान [प्रश्वास अर्थात् बाहिर निकलनेवाला दोषनाशक वायु] है, (सा) वह (पौर्णमासी) पौर्णमासी है [अर्थात् पूर्णमासेष्टि है, जिसमें वह विचारता है कि उसदिन चन्द्रमा पूरा क्यों दीखता है, पृथिवी, समुद्र आदि पर उसका क्या प्रभाव होताहै, इस प्रकार का यज्ञ वह ज्ञानी पुरुष अपने इन्द्रियदमन से सिद्ध करता है] ॥१॥

    भावार्थ - जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥

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