अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ द्वि॒तीयो॑ऽपा॒नः साष्ट॑का ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । द्वि॒तीय॑: । अ॒पा॒न: । सा । अष्ट॑का ॥१६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य द्वितीयोऽपानः साष्टका ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । द्वितीय: । अपान: । सा । अष्टका ॥१६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
विषय - अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (द्वितीयः) दूसरा (अपानः) अपान [प्रश्वास] है, (सः) वह (अष्टका) अष्टका है [अर्थात् वह अष्टमी आदि तिथि का यज्ञ है, जिसमें विद्वान् पितर लोग विचारते हैंकि ज्योतिष शास्त्र की मर्यादा से इन तिथियों में सूर्य और चन्द्र आदि का क्याप्रभाव पड़ता है] ॥२॥
भावार्थ - जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥
टिप्पणी -
२−(अष्टका)इष्यशिभ्यां तकन्। उ० ३।१४८। अशू व्याप्तौ अश भोजने-वा-तकन्, टाप्। अष्टकापितृदेवत्ये। वा० पा० ७।३।४५ इत्त्वाभावः। अष्टम्यादितिथौ पितॄणां समागमेनज्योतिषविद्याविचारः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥