अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ चतु॒र्थोऽपा॒नः सा श्र॒द्धा ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । च॒तु॒र्थ: । अ॒पा॒न: । सा । श्र॒ध्दा ॥१६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य चतुर्थोऽपानः सा श्रद्धा ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । चतुर्थ: । अपान: । सा । श्रध्दा ॥१६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
विषय - अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (चतुर्थः) चौथा (अपानः) अपान [प्रश्वास] है, (सा श्रद्धा) वह श्रद्धा है [वहज्ञानी पुरुष जितेन्द्रियता से श्रद्धा प्राप्त करता है] ॥४॥
भावार्थ - जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥
टिप्पणी -
४−(श्रद्धा)गुरुवेदादिवाक्येषु विश्वासः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥