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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - याजुषी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ ष॒ष्ठोऽपा॒नः स य॒ज्ञः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । ष॒ष्ठ: । अ॒पा॒न: । स: । य॒ज्ञ: ॥१६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य षष्ठोऽपानः स यज्ञः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । षष्ठ: । अपान: । स: । यज्ञ: ॥१६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (षष्ठः) छठा (अपानः) अपान [प्रश्वास] है, (स यज्ञः) वह यज्ञ है [मानो वहपरमेश्वर और विद्वानों का सत्कार, परस्पर संयोग और विद्या आदि दान है] ॥६॥

    भावार्थ - जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥

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