अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ तृ॒तीयो॑ऽपा॒नः सामा॑वा॒स्या ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । तृ॒तीय॑: । अ॒पा॒न:। सा । अ॒मा॒ऽवा॒स्या᳡ ॥१६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य तृतीयोऽपानः सामावास्या ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । तृतीय: । अपान:। सा । अमाऽवास्या ॥१६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
विषय - अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (तृतीयः) तीसरा (अपानः) अपान [प्रश्वास] है, (सा) वह (अमावास्या) अमावस्या है [वह दर्शेष्टि है, जिसमें विचारा जाता है कि अमावस के सूर्य और चन्द्रमा एक राशिमें आकर क्या प्रभाव उत्पन्न करते हैं] ॥३॥पूर्णमासेष्टि और दर्शेष्टि के विषयमें देखो-मनु० अ० ४ श्लो० २५ ॥
भावार्थ - जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥
टिप्पणी -
३−(अमावास्या) सू० १७म० ९। अमा सह वसतश्चन्द्रार्कौ यत्र, वस निवासे-ण्यत्। कृष्णपक्षशेषतिथिः, तद्दिने चन्द्रार्कावेकराशिस्थौ भवतः। दर्शेष्टिर्यज्ञविशेषः। अन्यत् पूर्ववत्स्पष्टं च ॥