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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा प्राजापत्या जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    वा॑स॒न्तावे॑नं॒मासौ॒ प्राच्या॑ दि॒शो गो॑पायतो बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं चानु॑ तिष्ठतो॒ य ए॒वं वेद॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒स॒न्तौ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । प्राच्या॑: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । बृ॒हत् । च॒ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वासन्तावेनंमासौ प्राच्या दिशो गोपायतो बृहच्च रथन्तरं चानु तिष्ठतो य एवं वेद॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वासन्तौ । एनम् । मासौ । प्राच्या: । दिश: । गोपायत: । बृहत् । च । रथम्ऽतरम् । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (वासन्तौ) वसन्तऋतुवाले (मासौ) दो महीने (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा से (एनम्) उस [विद्वान्]की (गोपायतः) रक्षा करते हैं, [और दोनों] (बृहत्) बृहत् [बड़ा आकाश] (च च) और (रथन्तरम्) रथन्तर [रमणीय गुणों द्वारा पार होने योग्य जगत्] [उसके लिये] (अनुतिष्ठतः) विहित कार्य करते हैं, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) व्यापक [व्रात्यपरमात्मा] को (वेद) जानता है ॥३॥

    भावार्थ - विद्वान् लोग निश्चयकरके मानते हैं कि जो मनुष्य परमात्मा में विश्वास करता है, वह पुरुषार्थी जनपूर्वादि दिशाओं और वसन्त आदि ऋतुओं में सुरक्षित रहता है ॥१-३॥

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