अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 8
बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑ अप॒बाध॑मानः। प्र॑भ॒ञ्जञ्छत्रू॑न्प्रमृ॒णन्न॒मित्रा॑न॒स्माक॑मेध्यवि॒ता त॒नूना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते। परि॑। दी॒य॒। रथे॑न। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मित्रा॑न्। अ॒प॒ऽबाध॑मानः। प्र॒ऽभ॒ञ्जन्। शत्रू॑न्। प्र॒ऽमृ॒णन्। अ॒मित्रा॑न्। अ॒स्माक॑म्। ए॒धि॒। अ॒वि॒ता। त॒नूना॑म् ॥१३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते परि दीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः। प्रभञ्जञ्छत्रून्प्रमृणन्नमित्रानस्माकमेध्यविता तनूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते। परि। दीय। रथेन। रक्षःऽहा। अमित्रान्। अपऽबाधमानः। प्रऽभञ्जन्। शत्रून्। प्रऽमृणन्। अमित्रान्। अस्माकम्। एधि। अविता। तनूनाम् ॥१३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 8
विषय - सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े-बड़े पुरुषों के रक्षक] (रक्षोहा) राक्षसों [दुष्टों] का मारनेवाला, (अमित्रान्) अमित्रों [वैरियों] को (अपबाधमानः) हटा देनेवाला होकर (रथेन) रथसमूह से (परि) सब ओर से (दीय) नाश कर। (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रभञ्जन्) कुचलता हुआ और (अमित्रान्) अमित्रों को (प्रमृणन्) मार डालता हुआ तू (अस्माकम्) हमारे (तनूनाम्) शरीरों का (अविता) रक्षक (एधि) हो ॥८॥
भावार्थ - अनुभवी योद्धाओं को उत्साह देने, वैरियों को मारने और प्रजा के बचाने में योग्य पुरुष ही सेनापति होवे ॥८॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१०३।४। यजु०१७।३६ और साम०-उ०९।३।२॥८−(बृहस्पते) हे बृहतां महतां पुरुषाणां रक्षक (परि) सर्वतः (दीय) दीङ् क्षये, छान्दसो दीर्घः। नाशय (रथेन) युद्धरथसमूहेन (रक्षोहाः) रक्षसां दुष्टानां हन्ता (अमित्रान्) अमेर्द्विषति चित्। उ०४।१७४। अम पीडने-इत्र, चित्। पीडकान्। शत्रून् (अपबाधमानः) निवारयन् सन् (प्रभञ्जन्) प्रकर्षेण मर्दयन् (शत्रून्) (प्रमृणन्) अतिशयेन मारयन् (अमित्रान्) (अस्माकम्) (एधि) भव (अविता) रक्षकः (तनूनाम्) शरीराणाम् ॥