अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 9/ मन्त्र 14
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा सङ्कृतिः
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
पृ॑थि॒वी शान्ति॑र॒न्तरि॑क्षं॒ शान्ति॒र्द्यौः शान्ति॒रापः॒ शान्ति॒रोष॑धयः॒ शान्ति॒र्वन॒स्पत॑यः॒ शान्ति॒र्विश्वे॑ मे दे॒वाः शान्तिः॒ सर्वे॑ मे देवाः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्ति॑भिः। ताभिः॒ शान्ति॑भिः॒ सर्व॒ शान्ति॑भिः॒ शम॑यामो॒ऽहं यदि॒ह घो॒रं यदि॒ह क्रू॒रं यदि॒ह पा॒पं तच्छा॒न्तं तच्छि॒वं सर्व॑मे॒व शम॑स्तु नः ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒वी। शान्तिः॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। शान्तिः॑। द्यौः। शान्तिः॑। आपः॑। शान्तिः॑। ओष॑धयः। शान्तिः॑। वन॒स्पत॑यः। शान्तिः॑। विश्वे॑। मे॒। दे॒वाः। शान्तिः॑। सर्वे॑। मे॒। दे॒वाः। शान्तिः॑। शान्तिः॑। शान्तिः॑। शान्ति॑ऽभिः। ताभिः॑। शान्ति॑ऽभिः। सर्व॑। शान्ति॑ऽभिः। श॑म्। अ॒या॒मः॒। अ॒हम्। यत्। इ॒ह। घो॒रम्। यत्। इ॒ह। क्रू॒रम्। यत्। इ॒ह। पा॒पम्। तत्। शा॒न्तम्। तत्। शि॒वम्। सर्व॑म्। ए॒व। शम्। अ॒स्तु॒। नः॒ ॥९.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिवी शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिर्द्यौः शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः सर्वे मे देवाः शान्तिः शान्तिः शान्तिः शान्तिभिः। ताभिः शान्तिभिः सर्व शान्तिभिः शमयामोऽहं यदिह घोरं यदिह क्रूरं यदिह पापं तच्छान्तं तच्छिवं सर्वमेव शमस्तु नः ॥
स्वर रहित पद पाठपृथिवी। शान्तिः। अन्तरिक्षम्। शान्तिः। द्यौः। शान्तिः। आपः। शान्तिः। ओषधयः। शान्तिः। वनस्पतयः। शान्तिः। विश्वे। मे। देवाः। शान्तिः। सर्वे। मे। देवाः। शान्तिः। शान्तिः। शान्तिः। शान्तिऽभिः। ताभिः। शान्तिऽभिः। सर्व। शान्तिऽभिः। शम्। अयामः। अहम्। यत्। इह। घोरम्। यत्। इह। क्रूरम्। यत्। इह। पापम्। तत्। शान्तम्। तत्। शिवम्। सर्वम्। एव। शम्। अस्तु। नः ॥९.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 14
विषय - मनुष्यों को कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(पृथिवी) भूमि (शान्तिः) शान्तिदायक [हो], (अन्तरिक्षम्) मध्यलोक [वायुमण्डल, मेघमण्डल, तारागण आदि] (शान्तिः) शान्तिदायक हो, (द्यौः) प्रकाशमान [सूर्य आदि] (शान्तिः) शान्तिदायक हो, (आपः) जल (शान्तिः) शान्तिदायक हो, (ओषधयः) ओषधें [अन्न सोमलता आदि] (शान्तिः) शान्तिदायक हों, (वनस्पतयः) वनस्पतियाँ [वट आदि वृक्ष] (शान्तिः) शान्तिदायक हों, (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (मे) मेरे लिये (शान्तिः) शान्तिदायक हों, (सर्वे) सब (देवाः) उत्तम पदार्थ (मे) मेरे लिये (शान्तिः) शान्तिदायक हों, (शान्तिभिः) शान्तियों [सुखदायक क्रियाओं] के साथ (शान्तिः) शान्ति, (शान्तिः) शान्ति [धैर्य आदि] हो। (ताभिः) उन (शान्तिभिः) शान्तियों [आनन्द क्रियाओं] से, (सर्व=सर्वाभिः) सब (शान्तिभिः) शान्तियों [धैर्य क्रियाओं] से (अहम्=वयम्) हम (शम्) शान्ति (अयामः) पावें, (यत्) जो कुछ (इह) यहाँ पर (घोरम्) घोर [भयङ्कर] हो, (यत्) जो कुछ (इह) यहाँ पर (क्रूरम्) क्रूर [निर्दय] हो, और (यत्) जो कुछ (इह) यहाँ पर (पापम्) पाप [अनिष्ट] हो, (तत्) वह (शान्तम्) शान्तियुक्त हो, (तत्) वह (शिवम्) कल्याणकारक हो, (सर्वम्) सब (एव) ही (नः) हमारे लिये (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो ॥१४॥
भावार्थ - मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये कि पृथिवी आदि पदार्थ सदा सुखदायक होवें ॥१४॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−३६।१७ ॥१४−(पृथिवी) भूमिः (शान्तिः) शान्तिकरी (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकः (शान्तिः) (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यादिः (शान्तिः) (आपः) जलानि (शान्तिः) (ओषधयः) अन्नसोमलताद्याः (वनस्पतयः) वटादिवृक्षाः (शान्तिः) (विश्वे) सर्वे (मे) मह्यम् (देवाः) विद्वांसः (शान्तिः) (सर्वे) (मे) (देवाः) दिव्यपदार्थाः (शान्तिः) (शान्तिः) (शान्तिभिः) सुखदायिकाभिः क्रियाभिः (सर्व) विभक्तेर्लुक्। सर्वाभिः (शान्तिभिः) (शम्) शान्तिम् (अयामः) अय गतौ। प्राप्नुमः (अहम्) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति जसः सुः। वयम् (यत्) यत् किञ्चित् (इह) संसारे (घोरम्) भयङ्करम् (यत्) (इह) (क्रूरम्) निर्दयम् (यत्) (इह) (पापम्) अनिष्टम् (तत्) पूर्वोक्तम् (शान्तम्) (तत्) (शिवम्) कल्याणकरम् (सर्वम्) (एव) निश्चयेन (शम्) शान्तिप्रदम् (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् ॥