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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    इन्द्रः॑ पू॒र्भिदाति॑र॒द्दास॑म॒र्कैर्वि॒दद्व॑सु॒र्दय॑मानो॒ वि शत्रू॑न्। ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा वावृधा॒नो भूरि॑दात्र॒ आपृ॑ण॒द्रोद॑सी उ॒भे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । पू॒:ऽभित् । आ । अ॒ति॒र॒त् । दास॑म् । अ॒र्कै: । वि॒दत्ऽव॑सु: । दय॑मान: । वि । शत्रू॑न् ॥ ब्रह्म॑ऽजूत: । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒धा॒न: । भूरि॑ऽदात्र: । आ । अ॒पृ॒ण॒त् । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑॥११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः पूर्भिदातिरद्दासमर्कैर्विदद्वसुर्दयमानो वि शत्रून्। ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्र आपृणद्रोदसी उभे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । पू:ऽभित् । आ । अतिरत् । दासम् । अर्कै: । विदत्ऽवसु: । दयमान: । वि । शत्रून् ॥ ब्रह्मऽजूत: । तन्वा । ववृधान: । भूरिऽदात्र: । आ । अपृणत् । रोदसी इति । उभे इति॥११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (विदद्वसुः) ज्ञानी श्रेष्ठ पुरुषों से युक्त (पूर्भित्) [शत्रुओं के] गढ़ों को तोड़नेवाले, (शत्रून्) वैरियों को (वि) विविध प्रकार (दयमानः) मारते हुए (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] ने (अर्कैः) पूजनीय विचारों से (दासम्) दास [सेवक] को (आ अतिरत्) बढ़ाया है। (ब्रह्मजूतः) ब्रह्माओं [महाविद्वानों] से प्रेरणा किये गये, (तन्वा) उपकार शक्ति से (वावृधानः) बढ़ते हुए, (भूरिदात्रः) बहुत से अस्त्र-शस्त्रवाले [शूर] ने (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि को (आ) भले प्रकार (अपृणत्) तृप्त किया है ॥१॥

    भावार्थ - जिस राजा की सभा में विद्वान् लोग सम्मतिदाता होते हैं, वह राजा शत्रुओं का नाश और प्रजा का पालन करके विज्ञान द्वारा पृथिवी और आकाश को वश में करके संसार को सुखी करता है ॥१॥

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