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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    इन्द्र॒ ओष॑धीरसनो॒दहा॑नि॒ वन॒स्पतीँ॑रसनोद॒न्तरि॑क्षम्। बि॒भेद॑ व॒लं नु॑नु॒दे विवा॒चोऽथा॑भवद्दमि॒ताभिक्र॑तूनाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ओष॑धी: । अ॒स॒नो॒त् । अहा॑नि । वन॒स्पती॑न् । अ॒स॒नो॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥ बि॒भेद॑ । ब॒लम् । नु॒नु॒दे । विऽवा॑च: । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । द॒मि॒ता । अ॒भिऽक्र॑तूनाम् ॥११.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र ओषधीरसनोदहानि वनस्पतीँरसनोदन्तरिक्षम्। बिभेद वलं नुनुदे विवाचोऽथाभवद्दमिताभिक्रतूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । ओषधी: । असनोत् । अहानि । वनस्पतीन् । असनोत् । अन्तरिक्षम् ॥ बिभेद । बलम् । नुनुदे । विऽवाच: । अथ । अभवत् । दमिता । अभिऽक्रतूनाम् ॥११.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] ने (अहानि) दिनों को और (ओषधीः) ओषधियों [सोम अन्न आदि] को (असनोत्) सेवा है, (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [पीपल आदि] और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (असनोत्) सेवा है। उससे (वलम्) घेरनेवाले शत्रु को (बिभेद) छिन्न-भिन्न किया और (विवाचः) विरुद्ध बोलनेवालों को (नुनुदे) निकाल दिया (अथ) फिर (अभिक्रतूनाम्) विरुद्ध कर्मवालों [अभिमानों दुष्टों] का (दमिता) दमन करनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥१०॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि सदा समय पर ध्यान रखकर पृथिवी और आकाश के पदार्थों को उपयोगी करके विरोधी दुष्टों को निकाल देवे ॥१०॥

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