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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 6
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्। न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । मत् । स्त्री । सु॒भ॒सत्ऽत॑रा । न । सु॒याशु॑ऽतरा । भु॒व॒त् ॥ न । मत् । प्रति॑ऽच्यवीयसी । न । सक्थि॑ । उत्ऽय॑मीयसी । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्। न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । मत् । स्त्री । सुभसत्ऽतरा । न । सुयाशुऽतरा । भुवत् ॥ न । मत् । प्रतिऽच्यवीयसी । न । सक्थि । उत्ऽयमीयसी । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (स्त्री) कोई स्त्री (मत्) मुझसे (न)(सुभसत्तरा) अधिक बड़ी शोभावाली, (न)(सुयाशुतरा) अधिक सुन्दर यत्नवाली, (न)(मत्) मुझसे (प्रतिच्यवीयसी) अधिक सहनेवाली और (न)(सक्थि) जङ्घा [आदि शरीर के अङ्गों] को (उद्यमीयसी) उद्योग में अधिक लगानेवाली (भुवत्) होवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥६॥

    भावार्थ - स्त्रियाँ भी मनुष्यशरीर पाकर सब प्रकार विद्या ग्रहण करें और कर्तव्य में चतुर बनकर अन्य स्त्रियों और प्राणियों से अपनी शोभा अधिक बढ़ावें ॥६॥

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