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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 10
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    सं॑हो॒त्रं स्म॑ पु॒रा नारी॒ सम॑नं॒ वाव॑ गच्छति। वे॒धा ऋ॒तस्य॑ वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी महीयते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽहो॒त्रम् । स्म॒ । पु॒रा । नारी॑ । सम॑नम् । वा॒ । अव॑ । ग॒च्छ॒ति॒ ॥ वे॒धा: । ऋ॒तस्य॑ । वी॒रिणी॑ । इन्द्र॑ऽपत्नी । म॒ही॒य॒ते॒ । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति। वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽहोत्रम् । स्म । पुरा । नारी । समनम् । वा । अव । गच्छति ॥ वेधा: । ऋतस्य । वीरिणी । इन्द्रऽपत्नी । महीयते । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (नारी) नारी [नरों का हित करने हारी स्त्री] (पुरा) पहिले काल से (स्म) ही (संहोत्रम्) मिलकर अग्निहोत्र आदि यज्ञ करने (वा) और (समनम्) मिलकर जीवन करने को (अव गच्छति) जानती है। (ऋतस्य) सत्य ज्ञान का (वेधाः) विधान करनेवाली (वीरिणी) वीरिणी [वीर सन्तानोंवाली], (इन्द्रपत्नी) इन्द्रपत्नी [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य की स्त्री] (महीयते) पूजी जाती है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम श्रेष्ठ है ॥१०॥

    भावार्थ - जो ज्ञानवती स्त्री अपने सदृश वीर पति से विवाह करके वीर सन्तानें उत्पन्न करती है, वही संसार में बड़ाई पाती है ॥१०॥

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