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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 8
    सूक्त - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१

    त्वं कर॑ञ्जमु॒त प॒र्णयं॑ वधी॒स्तेजि॑ष्ठयातिथि॒ग्वस्य॑ वर्त॒नी। त्वं श॒ता वङ्गृ॑दस्याभिन॒त्पुरो॑ऽनानु॒दः परि॑षूता ऋ॒जिश्व॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । कर॑ञ्जम् । उ॒त । प॒र्णय॑म् । व॒धी॒: । तेजि॑ष्ठ्या । अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑ । व॒र्त॒नी ॥ त्वम् । श॒ता । वङ्गृ॑दस्य । अ॒भि॒न॒त् । पुर॑: । अ॒न॒नु॒ऽद: । परि॑ऽसूता: । ऋ॒जिश्व॑ना ॥२१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं करञ्जमुत पर्णयं वधीस्तेजिष्ठयातिथिग्वस्य वर्तनी। त्वं शता वङ्गृदस्याभिनत्पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । करञ्जम् । उत । पर्णयम् । वधी: । तेजिष्ठ्या । अतिथिऽग्वस्य । वर्तनी ॥ त्वम् । शता । वङ्गृदस्य । अभिनत् । पुर: । अननुऽद: । परिऽसूता: । ऋजिश्वना ॥२१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    [हे राजन् !] (त्वम्) तूने (करञ्जम्) हिंसक (उत) और (पर्ण्यम्) पालन वस्तुओं को लेनेवाले [चोर] को (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले पुरुष के (तेजिष्ठया) अत्यन्त तेजस्वी (वर्तनी) मार्ग से (वधीः) मारा है। (त्वम्) तूने (वङ्गृदस्य) मार्ग तोड़नेवाले (अननुदः) अनुकूल न वर्तनेवाले दुष्ट के (ऋजिश्वना) सरलस्वभाव पुरुषों के बढ़ानेवाले [आप] करके (परिषूताः) घेरे हुए (शता) सैकड़ों (पुरः) दुर्गों को (अभिनत्) तोड़ा है ॥८॥

    भावार्थ - परोपकारी विद्वान् अतिथियों का सत्कार करनेवाला राजा धार्मिक रीति से उपद्रवी दुष्टों का नाश करता रहे ॥८॥

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