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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 11
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा वावृधस्व। उप॑ नो॒ वाजा॑न्मिमी॒ह्युप॒ स्तीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । स्तव॑मान: । ऊ॒ती । ब्रह्म॑ऽजूत: । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒ध॒स्व॒ ॥ उप॑ । न॒: । वाजा॑न् । मि॒मी॒हि॒ । उप॑ । स्तीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभि॑: । सदा॑ । न॒: ॥३७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू इन्द्र शूर स्तवमान ऊती ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधस्व। उप नो वाजान्मिमीह्युप स्तीन्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । इन्द्र । शूर । स्तवमान: । ऊती । ब्रह्मऽजूत: । तन्वा । ववृधस्व ॥ उप । न: । वाजान् । मिमीहि । उप । स्तीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभि: । सदा । न: ॥३७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (शूर) हे शूर (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नु) शीघ्र (स्तवमानः) उत्साह देता हुआ और (ब्रह्मजूतः) धन वा अन्न को प्राप्त होता हुआ तू (ऊती) रक्षा के साथ (तन्वा) शरीर से (वावृधस्व) अत्यन्त बढ़। (नः) हमारे (वाजान्) बलों को और (स्तीन्) घरों को (उप) आदर से (उप मिमीहि) उपमा योग्य [बड़ाई योग्य] कर। [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥११॥

    भावार्थ - राजा वीर पुरुषों को उत्साह देकर उनकी और अपनी वृद्धि करे और सब लोग उत्तम गुणों से उपमायोग्य प्रशंसनीय होकर परस्पर रक्षा करें ॥११॥

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